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________________ ९२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन क्योंकि गीता नैतिक निर्णय का विषय कर्ता की व्यवसायात्मिका बुद्धि को मानती है जो कांट के संकल्प के निकट ही नहीं, वरन् समानार्थक भी है। इसी प्रकार बौद्ध विचारणा में शुभाशुभ के निर्णय का आधार प्राणी की 'वासना' ( तृष्णा ) को माना गया है। तृष्णा ही समस्त प्रवृत्तियों की प्रेरक है। अतः कहा जा सकता है कि बौद्ध दृष्टिकोण मार्टिन्यू के अधिक निकट है। जहाँ तक जैन दृष्टिकोण का प्रश्न है उसे किसी सीमा तक मैकेंजी के चरित्रवाद के निकट माना जा सकता है, क्योंकि 'चरित्र' शब्द में जो अर्थ विस्तार है वह समन्वयवादी जैन दृष्टिकोण के अनुकूल है। फिर भी, इन आचारदर्शनों को किसी एक मतवाद के साथ बाँध देना संगत नहीं होगा क्योंकि उनमें सभी विचारणाओं के तथ्य खोजे जा सकते हैं। गीता में काम और क्रोध के अभिप्रेरक और बौद्ध विचारणा में अविद्या नैतिक निर्णय के महत्त्वपूर्ण विषय हैं । वास्तविकता यह है कि भारतीय विचार-दृष्टि समस्या के किसी एक पहलू को अन्य से अलग कर उसपर विचार नहीं करती, वरन् सम्पूर्ण समस्या का विभिन्न पहलुओं सहित विचार करती है। यही कारण है कि जब बौद्ध विचारणा ने बन्धन के कारण पर विचार किया तो अविद्या, तृष्णा आदि में से किसी एक को कारणनहीं माना, वरन् प्रतीत्यसमुत्पाद के रूप में उनकी एक श्रृंखला खड़ी कर दी। जैन दर्शन ने जब आस्रव के कारणों पर विचार किया तो न केवल मिथ्यात्व या कषाय में से किसी एक पर बल दिया, अपितु मिथ्यात्व, कषाय, अविरति, प्रमाद और योग के पंचक को स्वीकार किया। यह सम्भव है कि किसी दृष्टि विशेष से समय किसी एक पक्ष को प्रमुखता दी हो, लेकिन दूसरे तथ्यों को झुठलाया नहीं गया है। पाश्चात्य विचारणा में नैतिक निर्णय के विषय के प्रश्न को लेकर जो चार दृष्टिकोण हैं, वे जैन विचारणा में किस रूप में पाये जाते हैं और वह उनमें कैसे समन्वय करती है, इसका संक्षिप्त विवेचन भी यहाँ अपेक्षित है। ६७. अभिप्राय और जैन दृष्टि __ जैन विचारणा में 'अध्यवसाय' और 'परिणाम' दो विशेष प्रचलित शब्द हैं जो नैतिक निर्णय के विषय माने जाते हैं। नियमसार में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सामान्य प्राणियों की वचनादि क्रियाएँ परिणामपूर्वक (सप्रयोजन) होती हैं, इसलिए बन्धन का कारण होती हैं, जबकि केवलज्ञानी की वचनादि क्रियाएँ परिणाम (प्रयोजन) पूर्वक नहीं होतीं, अतः वे बन्धन का कारण नहीं होती हैं। जैन विचारणा में परिणाम' शब्द जिस विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता है वैसा प्रयोग सामान्यतया अन्यत्र नहीं देखा जाता। परिणाम शब्द का अर्थ मात्र कार्य का फल नहीं, वरन् कार्य की मानसिक संचेतना है। सरल शब्दों में, परिणाम का तात्पर्य है कार्य का कर्ता द्वारा वांछित फल । इस प्रकार 'परिणाम' शब्द मिल के अभिप्राय या प्रयोजन का ही पर्यायवाची है। १. नियमसार, १७२. २. जैनदर्शन में जिस प्रकार योग मानसिक और शारीरिक कृत्यता है, उसी प्रकार मिल के अनुसार अभिप्राय भी कृत्यता है, अतः दोनों ही समान कहे जा सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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