SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नतिक निर्णय का स्वरूप एवं विषय कसौटी को समाप्त कर देता है। फलस्वरूप हमारे पास दूसरे के कार्यों के नैतिक मूल्यांकन की कोई कसौटी ही नहीं रह जाती। यदि अभिसन्धि या कर्ता का प्रयोजन ही हमारे कर्मों की शुभाशुभता का निर्णायक है तो फिर एक व्यक्ति दूसरे के आचरण के सम्बन्ध में कोई भी नैतिक निर्णय नहीं दे सकेगा क्योंकि कर्ता का प्रयोजन, जो कि एक वैयवितक तथ्य है, दूसरे के द्वारा जाना नहीं जा सकता। दूसरे व्यक्ति के आचरण के सम्बन्ध में नैतिक निर्णय तो कार्य के बाह्य परिणाम के आधार पर ही दिया जा सकता है । लोग बाह्य रूप से अनैतिक आचरण करते हुए भी यह कहकर कि उसमें हमारा प्रयोजन शुभ था; स्वयं के नैतिक या धार्मिक होने का दावा कर सकते हैं। महावीर के युग में भी बाह्य रूप में अनैतिक आचरण करते हुए अनेक लोग धार्मिक या नैतिक होने का दावा करते थे। इसी कारण महावीर को यह कहना पड़ा कि 'मन से सत्य को समझते हुए भी बाहर से दूसरी बातें करना क्या संयमी पुरुषों का लक्षण है ?१ इस प्रकार एकांगी हेतुवाद का सबसे बड़ा दोष यह है कि उसमें नैतिकता का दम्भ पनपता है। दूसरे, एकान्त हेतुवाद में मन और कर्म की एकरूपता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। एकांगी हेतुवाद यह मान लेता है कि कार्य के मानसिक पक्ष और परिणामात्मक पक्ष में एकरूपता की आवश्यकता नहीं है, दोनों स्वतत्र हैं, उनमें एक प्रकार का द्वैत है, जबकि सच्चे नैतिक जीवन का अर्थ है--मनसा-वाचा-कर्मणा व्यवहार की एकरूपता । नैतिक जीवन की पूर्णता तो मन और कर्म के पूर्ण सामंजस्य में है। यह ठीक है कि कभी-कभी कर्ता के हेतु और उसके परिणाम में एकरूपता नहीं रह पाती है, लेकिन यह अपवादात्मक स्थिति ही है, इसके आधार पर सामान्य नियम की प्रतिष्ठापना नहीं हो सकती। सामान्य मान्यता तो यह है कि बाह्य आचरण कर्ता की मनोदशाओं का प्रतिबिम्ब है । मूल्यांकन-यही कारण है कि जैन नैतिक विचारणा ने कार्य के नैतिक मूल्यांकन के लिए सैद्धान्तिक दृष्टि से जहाँ कर्ता के मानसिक हेतु का महत्त्व स्वीकार किया, वहाँ व्यावहारिक दृष्टि से कार्य के बाह्य परिणाम की अवहेलना भी नहीं की है। श्री सिन्हा भी लिखते हैं कि जैन आचारदर्शन आत्मनिष्ठ नैतिकता पर बल देते हुए भी कार्यों के परिणामों पर समुचित विचार करता है ।२ जैनाचारदर्शन के अनुसार यदि कर्ता केवल अपने उद्देश्य की शुद्धता की ओर ही दृष्टि रखता है और परिणाम के सम्बन्ध में पूर्व से ही विचार नहीं करता है, तो उसका वह कर्म अयतना ( अविवेक ) और प्रमाद के कारण अशुभ ही माना जाता है और साधक प्रायश्चित का पात्र बनता है । कर्म-परिणाम का पूर्व विवेक जैन नैतिकता में आवश्यक है। नैतिक मूल्यांकन सामाजिक और वैयक्तिक दोनों दृष्टियों से किया जा सकता है । जब हम सामाजिक दृष्टि से किसी कर्म का नैतिक मूल्यांकन करते हैं, तो वह तथ्यपरक दृष्टि से ही होगा और उस अवस्था में कार्य के परिणाम ही नैतिक निर्णय के विषय होंगे। लेकिन जब वैयक्तिक दृष्टि से किसी कर्म का नैतिक १. सूत्रकृतांग, २।६।३५. २. इण्डियन फिलासफी (जे० एन० सिन्हा), भाग २, पृ० २६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy