________________
८८
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
दुःख देने मात्र से कोई कार्य पुण्य-पाप नहीं होता, वरन् उस कार्य के पीछे जो वासना है, वही कार्य के शुभाशुभ होने का कारण है। वीतराग के कारण किसी को सुख या दुःख हो सकता है, लेकिन उसके पीछे वासना या प्रयोजन न होने से उसे पुण्य-पाप का बन्ध नहीं होता। निष्कर्ष यह है कि जैन दृष्टि के अनुसार भी कर्ता का प्रयोजन या अभिसन्धि ही शुभाशुभत्व की अनिवार्य शर्त है, न कि मात्र सुख-दुःख के परिणाम ।
श्री यदुनाथ सिन्हा भी यही मानते हैं कि जैन आचारदर्शन कार्य के परिणाम (फल) से व्यतिरिक्त उसके हेतु की शुद्धता पर ही बल देता है। उसके अनुसार, “यदि कार्य किसी शुद्ध प्रयोजन से किया गया है, तो वह शुभ ही होगा चाहे उससे किसी दूसरे को दुःख ही क्यों न पहुँचा हो और यदि अशुभ प्रयोजन से किया गया है तो अशुभ ही होगा चाहे परिणाम के रूप में उससे दूसरों को सुख हुआ हो।"१श्री सुशील कुमार मंत्र कहते हैं, "शुभाशुभ कर्म का विनिश्चय बाह्य परिणामों पर नहीं, वरन् कर्ता के आत्मगत प्रयोजन की प्रकृति के आधार पर करना चाहिए।"२
तुलना--तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हेतुवाद के विषय में जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों में अद्भुत साम्य दिखाई देता है। इस सम्बन्ध में धम्मपद, गीता तथा पुरुषार्थसिद्धय पाय के कथन द्रष्टव्य हैं। आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं, "रागादि से रहित अप्रमादयुक्त आचरण करते हुए यदि प्राणघात हो जाये तो वह हिंसा नहीं है।"3 धम्मपद में कहा है, "माता, पिता, दो क्षत्रिय राजा एवं अनुचरों सहित राष्ट्र का हनन करने पर भी वीततृष्ण ब्राह्मण ( ज्ञानी ) निष्पाप होता है ।"४ गीता कहती है, "जिसमें आसक्ति और कर्तृत्वभाव नहीं है वह इस समग्र लोक को मारकर भी न तो मारता है और न बन्धन में आता है । वस्तुतः ऐसी हिंसा हिंसा नहीं है।"५ यद्यपि भारतीय आचारदर्शनों में इतनी वैचारिक एकरूपता है, तथापि गीता और जैनाचारदर्शन में एक अन्तर यह है कि गीता के अनुसार स्थितप्रज्ञ अवस्था में रहकर हिंसा की जा सकती है, जबकि जैन विचारणा कहती है कि इस अवस्था में रहकर हिंसा की नहीं जा सकती, मात्र हो जाती है।
प्रश्न उठता है कि यदि जैन चिन्तन को प्रयोजन या हेतुवाद स्वीकार्य है, तो फिर उसे हेतुवाद के समर्थक बौद्ध दर्शन की आलोचना करने का क्या अधिकार है ? यदि जैन चिन्तन को एकांततः हेतुवाद स्वीकार्य होता तो वह बौद्ध दार्शनिकों की आलोचना नहीं करता। जैन विचारणा का विरोध तो उस एकांगी हेतुवाद से है जिसमें बाह्य व्यवहार की अवहेलना की जाती है। एकांगी हेतुवाद में जैन विचारणा ने सबसे बड़ा खतरा यह देखा कि वह नैतिक मूल्यांकन की वस्तुनिष्ठ १. इण्डियन फिलासफी ( सिन्हा ) भाग २, पृ० २६४. २. दि एथिक्स आफ दि हिन्दूज, पृ० ३२४. ३. पुरुषार्थसिद्ध युपाय, ४५. ४. धम्मपद, २९४.
गीता, १८।१७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org