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नैतिक निर्णय का स्वरूप एवं विषय
आधार पर उसे फलवादी परम्परा का समर्थक मान लेना स्वयं में बहुत बड़ी भ्रान्ति होगी।
५. जैन दर्शनों में हेतुवाद और फलवाद का समन्वय __ जैन चिन्तकों द्वारा हेतुवाद का फलवाद से भी अधिक समर्थन किया गया है जिसे अनेक तथ्यों से परिपुष्ट किया जा सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में, आचार्य समन्तभद्र की आप्तमीमांसा की वृत्ति में तथा आचार्य विद्यानन्दि की अष्टसहस्री में फलवाद का खण्डन और हेतुवाद का मण्डन पाया जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में स्पष्ट कहते हैं कि ( हिंसा का ) अध्यवसाय अर्थात् मानसिक हेतु ही बन्धन का कारण है, चाहे ( बाह्य रूप में ) हिंसा हुई हो या न हुई हो।' वस्तु ( घटना ) नहीं, वरन संकल्प ही बन्धन को कारण है। दूसरे शब्दों में, बाह्य रूप में घटित कर्म-परिणाम नैतिक या अनैतिक नहीं हैं, वरन् व्यक्ति का कर्म-संकल्प या हेतु ही नैतिक या अनैतिक होता है। इसी सन्दर्भ में जैन आचार्य समन्तभद्र और विद्यानन्दि के दृष्टिकोणों का उल्लेख सुशीलकुमार मैत्र और यदुनाथ सिन्हा ने किया है । आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि कार्य का शुभत्व केवल इस तथ्य में निहित नहीं है कि उससे दूसरों को सुख होता है और स्वयं को कष्ट होता है । इसी प्रकार कार्य का अशुभत्व इस बात पर निर्भर नहीं करता कि उसकी फल-निष्पत्ति के रूप में दूसरों को दुःख होता है और स्वयं को सुख होता है । क्योंकि यदि शुभ-अशुभ का अर्थ दूसरों का सुख-दुःख हो तो हमें जड़ पदार्थ और वीतराग सन्त को भी बन्धन में मानना पड़ेगा, अर्थात् उन्हें नैतिकता की परिसीमा में मानना होगा, क्योंकि उनके क्रियाकलाप भी किसी के सुख और दुःख का कारण तो बनते ही हैं और ऐसी दशा में उन्हें भी शुभाशुभ का बन्ध होगा ही। दूसरे, यदि शुभ का अर्थ स्वयं का दुःख और अशुभ का अर्थ स्वयं का सुख हो तो वीतराग तपस्या के द्वारा शुभ का बन्ध करेगा और ज्ञानी आत्म-संतोष की अनुभूति करते हुए भी अशुभ या पाप का बन्ध करेगा। अतः सिद्ध यह होता है कि स्वयं का अथवा दूसरों का सुख अथवा दुःखरूप परिणाम शुभाशुभता का निर्णायक नहीं हो सकता, वरन् उनके पीछे निहित कर्ता का शुभाशुभ प्रयोजन ही किसी कार्य के शुभत्व अथवा अशुभत्व का निश्चय करता है।
आचार्य विद्यानन्दि फलवाद या कर्म के बाह्य परिणाम के आधार पर नैतिक मूल्यांकन करने की वस्तुनिष्ठ पद्धति का विरोध करते हैं। वे कहते हैं कि किसी दूसरे के हिताहित के आधार पर पुण्य-पाप का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, क्योंकि कुछ क्रियाशीलताएँ तो पुण्य-पाप के इस माप से नीचे हैं; जैसे जड़ पदार्थ,
और कुछ पुण्य-पाप के इस माप के ऊपर हैं जैसे अर्हत् । पुण्य-पाप के क्षेत्र में क्रियाओं के आधार पर वे ही आते हैं जो वासनाओं से युक्त हैं। किसी को सुख या १. समयसार, २६२. २. वही, २६५. ३. देखिए-दि एथिक्स आफ दि हिन्द ज, पृ० ३२१.
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