________________
निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता
७५
जहाँ तक नैतिकता के बाह्य पक्ष, अर्थात् आचरण या कर्म का सम्बन्ध है, वह निरपेक्ष नहीं हो सकता; सर्वप्रथम तो व्यक्ति जिस विश्व में आचरण करता है वह आपेक्षिकता से युक्त है । जो कर्म हम करते हैं और उसके जो परिणाम निष्पन्न होते हैं वे मुख्यतः हमारे संकल्प पर निर्भर न होकर उन परिस्थितियों पर निर्भर होते हैं जिनमें हम जीवन जीते हैं । बाह्य जगत् पर व्यक्ति की इच्छाएँ नहीं, अपितु परिस्थितियाँ शासन करती हैं । पुनः, चाहे मानवीय संकल्प को स्वतन्त्र मान भी लिया जाय किन्तु मानवीय आचरण को स्वतन्त्र नहीं माना जा सकता है, वह आन्तरिक और बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर होता है । अतः मानवीय कर्म का सम्पादन और उनके निष्पन्न परिणाम दोनों ही देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर होंगे । कोई भी कर्म देश, काल, व्यक्ति, समाज और परिस्थिति से निरपेक्ष नहीं होगा । हमने देखा कि भारतीय चिन्तन की जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएँ इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार करती हैं कि कर्म की नैतिकता निरपेक्ष नहीं है । पुनः नैतिक मूल्यांकन और नैतिक निर्णय उन सिद्धान्तों और परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं जिनमें वे दिये जाते हैं । सर्वप्रथम तो नैतिक मूल्यांकन व्यक्ति और परिस्थिति से निरपेक्ष होकर नहीं किया जा सकता, क्योंकि व्यक्ति जिस समाज में जीवन जीता है वह विविधताओं से युक्त है । समाज में व्यक्ति की अपनी योग्यताओं एवं क्षमताओं के आधार पर एक निश्चित स्थिति होती है, उसी स्थिति के अनुसार उसके कर्तव्य एवं दायित्व होते हैं, अतः वैयक्तिक दायित्वों और कर्तव्यों में विविधता होती है । गीता का वर्णाश्रमधर्म का सिद्धान्त और ब्रेडले का 'मेरा स्थान और उसके कर्तव्य' का सिद्धान्त एक सापेक्षिक नैतिकता की धारणा को प्रस्तुत करते हैं । अतः हमें सामाजिक सन्दर्भ में आचरण का मूल्यांकन सापेक्ष रूप में ही करना होगा । विश्व में ऐसा कोई एक सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं है जो हमारे निर्णयों का आधार बन सके। कुछ प्रसंगों में हम अपने नैतिक निर्णय निष्पन्न कर्म-परिणाम पर देते हैं, तो कुछ प्रसंगों में कर्म के वांछित या अग्रावलोकित परिणाम पर, और कभी कर्म के प्रेरक के
आधार पर भी
नैतिक निर्णय दिये जाते हैं । अतः कर्म के बाह्य स्वरूप और उसके वाले नैतिक मूल्यांकन तथा नैतिक निर्णय निरपेक्ष नहीं हो सकते, मानना होगा । पुनः कर्म या आचरण किसी आदर्श या लक्ष्य का साधन होता है और साधन अनेक हो सकते हैं । लक्ष्य या आदर्श एक होने पर भी उसकी प्राप्ति के लिए साधनों को अपनी स्थिति के अनुसार अनेक मार्ग सुझाये जा सकते हैं, अतः आचरण की विविधता एक स्वाभाविक तथ्य है । दो भिन्न सन्दर्भों में परस्पर विपरीत दिखाई देने वाले मार्ग भी अपने लक्ष्य की अपेक्षा से उचित माने जा सकते हैं । पुनः, जब हम दूसरे व्यक्तियों के आचरण पर कोई नैतिक निर्णय देते हैं तो हमारे सामने कर्म का बाह्य स्वरूप ही होता है। अतः दूसरे व्यक्तियों के आचरण के सम्बन्ध में हमारे मूल्यांकन और निर्णय सापेक्ष ही हो सकते हैं । हम उसके मनोभावों के प्रत्यक्ष द्रष्टा नहीं होते हैं और इसलिए उसके आचरण के मूल्यांकन में हमको निरपेक्ष निर्णय देने का कोई अधिकार ही नहीं होता है क्योंकि हमारा निर्णय केवल घटित परिणामों पर ही
Jain Education International
सन्दर्भ में होने उन्हें सापेक्ष ही
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org