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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
$ ११. नीति के सापेक्ष और निरपेक्ष तत्व
वस्तुतः नीति की सापेक्षता और निरपेक्षता का यह प्रश्न अति प्राचीन काल से एक विवादास्पद विषय रहा है। महाभारत, स्मृति ग्रन्थ एवं ग्रीक दार्शनिक साहित्य में इस सम्बन्ध में पर्याप्त चिन्तन हुआ है और आज तक विचारक इस प्रश्न को सुलझाने में लगे हुए हैं। वर्तमान युग में समाजवैज्ञानिक सापेक्षतावाद, मनोवैज्ञानिक सापेक्षतावाद और तार्किक भाववादी सापेक्षतावाद आदि चिन्तनधाराएँ नीति को सापेक्ष मानती हैं । उनके अनुसार, नैतिक मानदण्ड और नैतिक मूल्यांकन सापेक्ष हैं । वे यह मानते हैं कि किसी कर्म की नैतिकता देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति के परिवर्तित होने से परिवर्तित हो सकती है; अर्थात् जो कर्म एक देश में नैतिक माना जाता है वह दूसरे देश में अनैतिक माना जा सकता है; जो आचार किसी युग में नैतिक माना जाता था वही दूसरे युग में अनैतिक माना जा सकता है; इसी प्रकार जो कर्म एक व्यक्ति के लिए एक परिस्थिति में नैतिक हो सकता है वही दूसरी परिस्थिति में अनैतिक हो सकता है । दूसरे शब्दों में, नैतिक नियम, नैतिक मूल्यांकन और नैतिक निर्णय सापेक्ष हैं। देश, काल, समाज, व्यक्ति और परिस्थिति के तथ्य उन्हें प्रभावित करते हैं । चाहे हम नैतिक मानदण्ड और नैतिक निर्णय को समाजसापेक्ष मानें या उन्हें वैयक्तिक मनोभावों की अभिव्यक्ति कहें, उनकी सापेक्षिकता में कोई अन्तर नहीं होता है । संक्षेप में, सापेक्षतावादियों के अनुसार नैतिक नियम सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सार्वजनिक नहीं हैं । जबकि निरपेक्षतावादियों का कहना है कि नैतिक मानक और नैतिक नियम अपरिवर्तनीय, सार्वकालिक, सार्वदेशिक, सार्वजनिक और अपरिवर्तनीय हैं, अर्थात् नैतिकता और अनैतिकता के बीच एक ऐसी कठोर विभाजक रेखा है जो अनुल्लंघनीय है; नैतिक कभी भी अनैतिक नहीं हो सकता और अनैतिक कभी भी नैतिक नहीं हो नियम देश, काल, समाज, व्यक्ति और परिस्थिति से निरपेक्ष हैं हैं । नैतिक जीवन में अपवाद और आपद्धर्म के लिए कोई स्थान नहीं के सन्दर्भ में एकान्त सापेक्षवाद और एकान्त निरपेक्षवाद दोनों ही उचित नहीं हैं । वे आंशिक सत्य तो हैं लेकिन नीति के सम्पूर्ण स्वरूप को स्पष्ट कर पाने में समर्थ नहीं हैं । दोनों की अपनी कुछ कमियाँ हैं ।
सकता । नैतिक
।
वे शाश्वत सत्य
| वस्तुतः नीति
नीति में सापेक्षता और निरपेक्षता दोनों का क्या और किस रूप में स्थान है, यह जानने के लिए हमें नीति के विविध पक्षों को समझ लेना होगा । सर्वप्रथम नीति का एक बाह्य पक्ष होता है और दूसरा आन्तरिक पक्ष होता है, अर्थात् एक ओर आचरण होता है तो दूसरी ओर आचरण की प्रेरक और निर्देशक चेतना होती है । एक ओर नैतिक आदर्श या साध्य होता है और दूसरी ओर उस साध्य की प्राप्ति के साधन या नियम होते हैं । इसी प्रकार हमारे नैतिक निर्णय भी दो प्रकार के होते हैं -- एक वे जिन्हें हम स्वयं के सन्दर्भ में देते हैं, दूसरे वे जिन्हें हम दूसरों के सम्बन्ध में देते हैं । साथ ही ऐसे अनेक सिद्धान्त होते हैं जिनके आधार पर नैतिक
निर्णय दिये जाते हैं ।
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