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________________ ७० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन $ ६. सापेक्ष नैतिकता और मनपरतावाद यदि नैतिक आचरण का बाह्य प्रारूप एक सापेक्ष तथ्य है और देश, काल तथा व्यक्तिगत परिस्थितियों से प्रभावित होता है, तो प्रश्न उठता है कि किस स्थिति में किस प्रकार का आचरण किया जाये, इसका निश्चय कैसे किया जाये ? जैन दर्शन कहता है कि उत्सर्ग-मार्ग सामान्य मार्ग है जिसपर सामान्य अवस्था में प्रत्येक साधक को चलना होता है। जब तक देश, काल और वैयक्तिक दृष्टि से कोई विशेष परिस्थिति उत्पन्न नहीं हो जाती, तब तक प्रत्येक व्यक्ति को इस सामान्य मार्ग पर ही चलना होता है। लेकिन विशेष अथवा अपरिहार्य परिस्थितियों में वह अपवाद मार्ग पर चल सकता है । लेकिन तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इसका निश्चय कौन करे कि अमुक परिस्थिति में अपवाद - मार्ग का अवलम्बन लिया जा सकता है ? यदि इसके निश्चय करने का अधिकार स्वयं व्यक्ति को दे दिया जाता है तो फिर नैतिक जीवन में समरूपता और वस्तुनिष्ठता ( objectivity ) का अभाव होगा और हर व्यक्ति अपनी इच्छाओं के वशीभूत हो अपवाद मार्ग का सहारा लेगा । वास्तविकता यह है कि जब भी आचार के नियमों की सापेक्षता को स्वीकार कर लिया जाता है, तो यह नैतिक सापेक्षतावाद ( moral relativism ) हमें अनिवार्यतः मनपरतावाद ( subjectivism ) की ओर ले जाता है । लेकिन मनपरतावाद में आकर नैतिक नियम अपना समस्त स्थायित्व खो देते हैं, उनका कोई वस्तुगत आधार नहीं रह जाता और उनमें एक प्रकार की अनिश्चितता और अव्यवस्थितता आ जाती है । सापेक्षिक नैतिकता एवं मनपरतावाद में साधारणजन कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय कर पाने में समर्थ नहीं होता क्योंकि परिस्थिति स्वयं में इतना जटिल तथ्य है कि साधारणजन उसके यथार्थ स्वरूप को समझ पाने में असमर्थ होता है । दूसरे, यदि साधारणजन को इसके निश्चय का अधिकार प्रदान कर भी दिया जाये तो साधारणजन के मनमौजीपन पर नैतिक जीवन की एकरूपता समाप्त हो जायेगी और इस प्रकार नैतिकता का समग्र ढाँचा ही अस्तव्यस्त हो जायेगा । अतः जैन नैतिक विचारणा इस क्षेत्र में व्यक्ति को अधिक स्वतन्त्र नहीं छोड़ती है, कि वह नैतिक प्रत्ययों को इतना अधिक व्यक्तिनिष्ठ बना दे कि उनका मूल्य ही समाप्त हो जाये । जैन विचारणा के अनुसार व्यक्ति को इतनी अधिक स्वतन्त्रता नहीं है कि वह शुभत्व और अशुभत्व के प्रत्ययों को मनमाना रूप दे सके । $ ७ सापेक्ष नैतिकता और अनेकान्तवाद अनेकान्तवाद तथा स्याद्वाद जैन दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त हैं । लेकिन कुछ विचारकों का आक्षेप है कि जैन दर्शन में अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद के कारण नैतिकता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है । स्याद्वाद के अनुसार जो कर्म नैतिक है वह अनैतिक भी हो जाता है और जो कार्य अनैतिक है वह नैतिक भी हो जाता है । स्याद्वाद की ही शैली में वे अपने आक्षेप को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं, "किसी अपेक्षा से व्यभिचार करना अनैतिक है ( स्यात् अस्ति ) और किसी अपेक्षा से व्यभिचार करना अनैतिक नहीं है ( स्यात् नास्ति ) ।" इस प्रकार व्यभिचार, हिंसा, चोरी आदि अनैतिक कर्म दूसरी अपेक्षा से नैतिक भी हो सकते हैं । यदि व्यभिचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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