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निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता
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जैसा अनैतिक कर्म भी नैतिक हो सकता है और अहिंसा जैसा नैतिक कर्म भी अनैतिक हो सकता है, तो फिर सामान्य व्यक्ति के लिए नैतिकता का क्या अर्थ रह जायेगा, यह समझना कठिन है ।
इस आक्षेप का निराकरण दो प्रकार से किया जा सकता है । एक तो यह कि यह आक्षेप इसलिए समुचित नहीं है कि स्याद्वाद के अनुसार नैतिकता स्वयं एक अपेक्षा है और जो किसी एक अपेक्षा से सत् होता है, वह उसी अपेक्षा से असत् नहीं हो सकता । यदि कोई कर्म नैतिकता की अपेक्षा से उचित या नैतिक है तो फिर वही कर्म नैतिकता को उसी अपेक्षा से अनुचित या अनैतिक नहीं हो सकता । यह स्मरण रखना चाहिए कि नैतिकता कर्म के सम्बन्ध में एक दृष्टि है, एक अपेक्षा है; अतः कोई भी कर्म नैतिक दृष्टि से उचित और अनुचित या नैतिक और अनैतिक दोनों नहीं हो सकता । यदि हिंसा का विचार या व्यभिचार नैतिक दृष्टि से अनुचित है तो वह नैतिक दृष्टि से कभी भी उचित नहीं हो सकता ।
वस्तुतः जैन परम्परा में अनेकान्तवाद स्वयं भी एकान्त नहीं है, एकान्त और अनेकान्त दोनों उसमें समाहित हैं । नय ( दृष्टिविशेष) की अपेक्षा से उसमें एकान्त का पक्ष समाहित है तो प्रमाण की अपेक्षा से उनमें अनेकान्त का तत्त्व समाहित है । नय या दृष्टिकोण विशेष के आधार पर कोई भी कर्म या तो नैतिक होता है या अनैतिक । लेकिन विविध दृष्टिकोणों के आधार पर उसमें नैतिकता और अनैतिकता के दोनों पक्ष हो सकते हैं । यह स्मरण रखना चाहिए कि कर्म के आन्तरिक पक्ष के सन्दर्भ में नैतिकता स्वयं एक दृष्टि होती है, जबकि कर्म के बाह्य पक्ष के सम्बन्ध में अनेकान्त दृष्टि स्वयं भी अनेक दृष्टिकोणों से विचार करती है और इस रूप में वह सापेक्ष नैतिकता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करती है ।
$ आदर्श व्यक्ति का आचार एवं मार्ग-निर्देश ही
जनसाधारण के लिए प्रमाणभूत
सापेक्ष नैतिकता में जनसाधारण के द्वारा कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय करना सरल नहीं है । अतः जैन नैतिकता में सामान्य व्यक्ति के मार्गदर्शन के रूप में 'गीतार्थ' की योजना की गयी है । गीतार्थ वह आदर्श व्यक्ति है जिसका आचरण जनसाधारण के लिए प्रमाण होता है । गीता के आचारदर्शन में भी जनसाधारण के लिए मार्गदर्शन के रूप में श्रेष्ठजन के आचार को ही प्रमाण माना गया है । गीता स्पष्ट रूप में कहती है कि श्रेष्ठ या आत्मज्ञानी पुरुष जिस प्रकार का आचरण करता है, साधारण मनुष्य भी उसी के अनुरूप आचरण करते हैं । वह आचरण के जिस प्रारूप को प्रामाणिक मानकर अंगीकार करता है लोग भी उसी का अनुकरण करते हैं ।" महाभारत में भी कहा है कि महाजन जिन मार्ग से गये हों वही धर्म-मार्ग है | यही बात जैनागम उत्तराध्ययन में इस प्रकार कही गयी है, "बुद्धिमान् आचार्यों (आर्यजन ) के द्वारा जिस धार्मिक व्यवहार का आचरण किया गया है उसे ही प्रामाणिक मानकर तदनुरूप आचरण करने वाला व्यक्ति कभी भी निन्दित नहीं होता है। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले के अनुसार भी नैतिक आचार महाभारत, वनपर्व, ३१२।११५. ३, उत्तराध्ययन, १।४२.
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१. गीता, ३।२१. २.
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