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________________ निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता आत्मा के रूप में नैतिकता निरपेक्ष है, लेकिन अपने शरीर के रूप में वह सदैव सापेक्ष है। इस प्रकार जैन दर्शन में नैतिकता के दोनों ही पक्ष स्वीकृत हैं। वस्तुतः नैतिक जीवन की सम्यक् प्रगति के लिए दोनों ही आवश्यक हैं । जैसे लक्ष्य पर पहुँचने के लिए यात्रा और पड़ाव दोनों आवश्यक है वैसे ही नैतिक जीवन के लिए भी दोनों पक्ष आवश्यक है । कोई भी एक दृष्टिकोण समुचित और सर्वांगीण नहीं कहा जा सकता। समकालीन नैतिक चिन्तन में भी जैन दर्शन के इसी दृष्टिकोण का समर्थन मिलता है। $ ५. डिवी का दृष्टिकोण और जैन वर्शन पाश्चात्य फलवादी दार्शनिक जान डिवी का दृष्टिकोण जैन दर्शन की उपर्युक्त विचारणा के निकट पड़ता है। इस संदर्भ में उसके विचारों को जान लेना भी आवश्यक है । वह लिखता है कि 'नैतिक सिद्धान्तों का कार्य एक दृष्टिकोण और पद्धति प्रदान करना है जो किसी विशेष परिस्थिति में, जिसमें कि व्यक्ति अपने आपको पाता है, शुभ और अशुभ तत्त्वों के विश्लेषण के लिए उसे सक्षम बनाती है । वे परिस्थितियां सदैव परिवर्तनशील हैं जिनमें नैतिक आदर्शों का निर्माण होता है। नैतिक मूल्यांकनों, कर्तव्यों एवं नैतिक प्रतिमानों के लिए उन परिवर्तनशील परिस्थितियों के साथ समायोजन करना आवश्यक हो जाता है। यद्यपि इसका यह अर्थ मान लेना भी मूर्खतापूर्ण होगा कि सभी नैतिक सिद्धान्त इतने सापेक्ष हैं कि किसी भी सामाजिक स्थिति में उनमें कोई नियामक शक्ति नहीं है। शुभ की विषयवस्तु बदल सकती है, लेकिन उसका आधार नहीं बदलता। प्राप्तम्य लक्ष्यों एवं परिणामों का आधार सदैव समान रहता है । वस्तुतः समग्र नैतिकता का मूलभूत स्वरूप वही रहता है। नैतिकता के विशेष रूप समय-समय पर सामाजिक परिस्थितियों के साथ बदलते रहते हैं। लेकिन इच्छा, उद्देश्य, सामाजिक मांगें एवं नियम और सहानुभूतिपूर्ण अनुमोदन और आवेशपूर्ण अनुमोदन के तथ्य स्थिर रहते हैं। नैतिकता के विशेष पक्ष अस्थिर हैं। वे सदैव अपनो वास्तविक अभिव्यक्ति में सदोष होते हैं। लेकिन नैतिक प्रयत्नों का आकारिक स्वरूप उतना ही स्थायी है, जितना कि स्वयं मानवजोवन । नैतिकता का शरीर परिवर्तनशील, सापेक्षिक है, लेकिन नैतिकता का साध्यरूपी आत्मा निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनशील है। इस प्रकार डिवी के विचारों को जैन दर्शन की स्थापनाओं से काफी निकटता है। दोनों ही नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष, अथवा अस्थायी एवं स्थायी पक्षों को स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन से मिलता-जुलता एक दृष्टिकोण विकासवादी दार्शनिक स्पेन्सर का भी है। स्पेन्सर भी नैतिक सापेक्षता की धारणा में विश्वास करता है, लेकिन यह भी मानता है कि पूर्ण विकास की अवस्था में नैतिकता भी निरपेक्ष बन जायेगी। स्पेन्सर के इस दष्टिकोण को जैन दर्शन की भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है कि जब अपूर्णता है तब तक सापेक्षता है, लेकिन पूर्णता की प्राप्ति के साथ ही सापेक्षता भी समाप्त हो जाती है । १. कण्टेम्पररि ऐथिकल प्योरीज, पृ० १६३, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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