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________________ ६८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन अपवाद - मार्ग की अपेक्षा से सापेक्ष है, लेकिन जिस परिस्थितिगत सामान्यता के तत्त्व को स्वीकार कर उत्सर्ग-मार्ग का निरूपण किया जाता है, उस सामान्यता के तत्त्व की दृष्टि से निरपेक्ष ही होता है । अपवाद की अवस्था में सामान्य नियम का भंग हो जाने से उसकी मान्यता खण्डित नहीं हो जाती, उसकी सामान्यता या सार्वभौमिकता समाप्त नहीं हो जाती । मान लीजिए, हम किसी निरपराध प्राणी की जान बचाने के लिए असत्य बोलते हैं, इससे सत्य बोलने का सामान्य नियम खण्डित नहीं हो जाता । अपवाद न तो कभी मौलिक नियम बन सकता है, न अपवाद के कारण उत्सर्ग की सामान्यता या सार्वभौमिकता ही खण्डित होती है । उत्सर्ग-मार्ग को निरपेक्ष कहने का प्रयोजन यही होता है कि वह मौलिक होता है, यद्यपि उन मौलिक नियमों पर आधारित बहुत-से विशेष नियम हो सकते हैं । उत्सर्ग मार्ग अपवाद - भागं का बाध नहीं करता है, वह तो मात्र इतना ही बताता है कि अपवाद सामान्य नियम नहीं बन सकता । डा० श्रीचन्द के शब्दों में, “निरपेक्षवाद ( उत्सर्ग-मार्ग ) सभी नियमों की सार्वभौमिकता सिद्ध नहीं करना चाहता, परन्तु केवल सभी मौलिक नियमों की सार्वभौमिकता सिद्ध करना चाहता है ।" उत्सर्ग की निरपेक्षता देश, काल एवं व्यक्तिगत परिस्थितियों के अन्दर ही होती है, उससे बाहर नहीं । उत्सर्ग और अपवाद नैतिक आचरण की विशेष पद्धतियाँ हैं । लेकिन दोनों ही किसी एक नैतिक लक्ष्य के लिए हैं; इसलिए दोनों नैतिक हैं । जैसे, दो मार्ग यदि एक ही नगर तक पहुँचाते हों, तो दोनों ही मार्ग होंगे, अमार्ग नहीं; वैसे ही अपवादात्मक नैतिकता का सापेक्ष स्वरूप और उत्सर्गात्मक नैतिकता का निरपेक्ष स्वरूप दोनों ही नैतिकता के स्वरूप हैं और कोई भी अनैतिक नहीं है । लेकिन नैतिक निरपेक्षता का एक रूप और है, जिसमें वह सदैव ही देश, काल एवं व्यक्तिगत सीमाओं से ऊपर उठी होती है । नैतिकता का वह निरपेक्ष रूप अन्य कुछ नहीं, स्वयं 'नैतिक आदर्श' ही है । नैतिकता का लक्ष्य एक ऐसा निरपेक्ष तथ्य है जो सारे नैतिक आचरणों के मूल्यांकन का आधार है । नैतिक आचरण की शुभाशुभता का अंकन इसी पर आधारित है । कोई भी आचरण, चाहे वह उत्सर्ग मार्ग से हो या अपवाद - मार्ग से, हमें उस लक्ष्य की ओर ले जाता है जो शुभ है । इसके विपरीत जो भी आचरण इस नैतिक आदर्श से विमुख करता है, वह अशुभ है, अनैतिक है । नैतिक जीवन के उत्सर्ग और अपवाद नामक दोनों मार्ग इसी की अपेक्षा से सापेक्ष हैं और इसी के मार्ग होने से निरपेक्ष भी, क्योंकि मार्ग के रूप में किसी स्थिति तक इससे अभिन्न भी होते हैं और यही अभिन्नता उनको निरपेक्षता का ययार्थ तत्त्व प्रदान करती है । लक्ष्यरूपी नैतिक चेतना के सामान्य तत्त्व के आधार पर ही नैतिक जीवन के उत्सर्ग और अपवाद, दोनों मार्गों का विधान है । लक्ष्यात्मक नैतिक चेतना ही उनका निरपेक्ष तत्त्व है, जबकि आचरण का साधनात्मक मार्ग सापेक्ष तथ्य है । लक्ष्य या नैतिक आदर्श नैतिकता की आत्मा है और बाह्य आचरण उसका शरीर है । अपनी १. नीतिशास्त्र का परिचय, डा० श्रीचन्द, पृ० १२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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