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________________ निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता ६७ चल रहा है, तो वह भी अनेक ठोकरें खाता है और भटक जाता है । नैतिक जीवन में भी हमारी गति का वही स्वरूप होता है जो हमारे दैनिक जीवन में होता है । जिस प्रकार दैनिक जीवन में चलने के उपक्रम में हमारा काम न तो केवल सामने देखने से चलता है, न ही सिर्फ नीचे देखने से । चलने की सम्यक् प्रक्रिया वही है जिसमें पथिक सामने और नीचे दोनों ओर दृष्टि रखे । नैतिक जीवन में भी साधक को यथार्थ और आदर्श, दोनों पर दृष्टि रखनी होती है, तभी नैतिक जीवन में सम्यक् प्रगति सम्भव है। यह शंका उठ सकती है कि सामान्य जीवन में तो दो आँखें मिली हैं, लेकिन नैतिक जीवन की दो आँखें कौन सी हैं ? किसी अपेक्षा से ज्ञान और क्रिया को नैतिक जीवन की दो आँखें कहा जा सकता है। नैतिकता कहती है कि ज्ञान नामक आँख को आदर्श पर केन्द्रित करो और क्रिया नामक आँख को यथार्थ पर, अर्थात् कर्म के आचरण में यथार्थता की ओर देखो और गन्तव्य की ओर प्रगति करने में आदर्श की ओर। ६४. उत्सर्ग और अपवाद जैन नैतिक विचारणा में नैतिकता के सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों रूप स्वीकृत हैं । लेकिन उसमें भी निरपेक्षता दो भिन्न अर्थों में प्रयुक्त है । प्रथम प्रकार की निरपेक्षता वह है जिसमें आचार के सामान्य या मौलिक नियमों को निरपेक्ष माना जाता है और विशेष नियमों को सापेक्ष माना जाता है; जैसे अहिंसा सामान्य या सार्वभौम नियम है, लेकिन मांसाहार विशेष नियम है। जैन परिभाषा में कहें तो श्रमण के मूलगुण सामान्य नियम हैं और इस प्रकार निरपेक्ष हैं, जबकि उत्तरगुण विशेष नियम हैं, सापेक्ष हैं । आचार के सामान्य नियम देशकालगत विभेद में भी अपनी मूलभूत दृष्टि के आधार पर निरपेक्ष प्रतीत होते हैं। लेकिन इस प्रकार की निरपेक्षता वस्तुतः सापेक्ष ही है । आचरण के जिन नियमों का विधि और निषेध जिस सामान्य दशा में किया गया है, उसकी अपेक्षा से आचरण के वे नियम उसी रूप में आचरणीय हैं । व्यक्ति सामान्य स्थिति में उन नियमों के परिपालन में किसी अपवाद या छूट की अपेक्षा नहीं कर सकता । यहाँ पर भी सामान्य दशा का विचार व्यक्ति एवं उसकी देशकालगत बाह्य परिस्थितियों के सन्दर्भ में किया गया है, अर्थात् यदि व्यक्ति स्वस्थ है और देशकालगत परिस्थितियाँ भी वे ही हैं जिनको ध्यान में रखकर विधि या निषेध किया गया है, तो व्यक्ति को उन नियमों तथा कर्तव्यों का पालन भी तदनुरूप करना होगा। जैन परिभाषा में इसे 'उत्सर्ग-मार्ग' कहा जाता है, जिसमें साधक को नैतिक आचरण शास्त्रों में प्रतिपादित रूप में ही करना होता है। उत्सर्ग नैतिक विधि-निषेधों का सामान्य कथन है। जैसे मन, वचन, काय से हिंसा न करना, न करवाना, न करनेवाले का समर्थन करना। लेकिन जब इन्हीं सामान्य विधि-निषेधों को किन्हीं विशेष परिस्थितियों में शिथिल कर दिया जाता है, तब नैतिक आचरण की उस अवस्था को 'अपवाद-मार्ग' कहा जाता है। उत्सर्ग-मार्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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