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________________ ६६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन की भूमिका को महत्त्व देती है जिसमें साधक खड़ा हुआ है । लेकिन वे उस यथार्थता से ऊपर स्थित आदर्श का समुचित मूल्यांकन करने में सफल नहीं हो पातीं । वास्तविकता यह है कि वे 'जो है' उसपर तो ध्यान देती हैं, लेकिन 'जो होना चाहिए' उसपर उनकी दृष्टि नहीं पहुँचती । उनकी दृष्टि यथार्थ या वास्तविकता पर होती है, आदर्श पर नहीं । नैतिकता की ऐकान्तिक सापेक्षवादी मान्यता में नैतिक आदर्श की स्थापना जटिल हो जाती है । उसमें नैतिकता सदैव ही बनी रहती है तथा ऐसी कच्ची सामग्री प्रस्तुत करती है जिसका अपना कोई 'आकार' नहीं होता । वह तो कुम्हार के चाक पर रखे हुए मृत्तिका - पिण्ड के समान होती है, जिसका क्या बनना है यह निश्चय नहीं । दूसरे सापेक्षिक नैतिकता के सिद्धान्त में मूल्यांकन की क्रिया परिस्थिति पर आधारित होती है । नैतिकता का सापेक्ष सिद्धान्त परिस्थिति पर ही सारा बल देता है । परिस्थिति सदैव परिवर्तनशील होती है । इतना ही नहीं, प्रत्येक परिस्थिति अपने आपमें 'विशिष्ट' होती है और नैतिक कर्ता के रूप में प्रत्येक व्यक्ति भी विशिष्ट होता है । अतः नैतिकता के सापेक्ष सिद्धान्त में सामान्य नैतिकनियमों का निर्माण एक असम्भावना बन जाती है । आचरण के सामान्य नियमों के अभाव में व्यावहारिक नैतिकता का भी कोई स्वरूप अवशिष्ट नहीं रहता । एक व्यावहारिक आचारदर्शन के लिए यह आवश्यक है कि परिस्थिति एवं व्यक्ति के अन्तर को ध्यान में रखते हुए कुछ ऐसे वर्ग बनाये जिनमें प्रत्येक वर्ग एवं स्थिति के आचरण के नियमों का सामान्य प्रतिमान प्रस्तुत किया जा सके । जो नैतिक विचारणाएँ केवल निरपेक्ष दृष्टि को स्वीकार करती हैं वे मात्र 'आदर्श' की ओर देखती हैं । वे नैतिक आदर्श को प्रस्तुत कर देती हैं, लेकिन साधनापथ के समुचित निर्धारण में असफल हो जाती हैं; क्योंकि साधना - पथ सदैव परिस्थिति-सापेक्ष होता है और नैतिकता केवल साध्य रह जाती है । नैतिकता की निरपेक्षवादी धारणा नैतिक जीवन के प्रयोजन अथवा कर्म के पीछे निहित कर्ता के अभिप्राय को ही सब कुछ मान लेती है । लेकिन नैतिकता तो जीवन को ढालना है, उसे सुन्दर स्वरूप प्रदान करना है । इसके लिए आकार और सामग्री दोनों आवश्यक हैं । इतना ही नहीं, नैतिकता का साँचा ऐसा भी होना चाहिए जो सब प्रकार की जीवन-सामग्री को ढालने के लिए लचीला हो । नैतिक जीवन के आदर्श इस प्रकार प्रस्तुत किये जाने चाहिए कि उसमें निम्न से निम्नतर चारित्रवाले से लगाकर उच्चतम नैतिक विकासवाले प्राणियों के समाहित होने की सम्भावना रहे। जैन नैतिकता नैतिक आदर्श को इतने लचीले रूप में प्रस्तुत करती है कि पापी जीव भी क्रमिक विकास करता हुआ नैतिक साधना के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सके । नैतिकता लक्ष्योन्मुख गति है । उस गति में साधक की दृष्टि उस भूमि पर ही स्थित होती है, जिसपर वह गति कर रहा है । यदि अपने गन्तव्य मार्ग में सामने नहीं देखता तो वह कभी भी बाधाओं से टकराकर गिर सकता है । इसी प्रकार जो साधक केवल आदर्श की ओर देखता है और उस भूमि की ओर नहीं देखता जिसपर www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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