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निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता
अनैतिक होता है, लेकिन आत्महत्या का कर्म सदैव अनैतिक ही हो, यह आवश्यक नहीं है; वरन् कभी-कभी तो वह नैतिक ही हो जाता है ।'
_ नैतिकता के क्षेत्र में जब एक बार व्यक्ति के संकल्प-स्वातन्त्र्य को स्वीकार कर लेते हैं, तो फिर यह कहने का अधिकार ही नहीं रह जाता कि हमारा संकल्प सापेक्ष है और तब नैतिकता भी सापेक्ष नहीं मानी जा सकती। यही कारण है कि जैन विचारणा संकल्प या विचारों की दृष्टि से नैतिकता को सापेक्ष नहीं मानती। उसके अनुसार शुभ अध्यवसाय या संकल्प सदैव शुभ है, नैतिक है, और कभी भी अनैतिक या अधर्म नहीं होता; लेकिन किसी भी निरपेक्ष नैतिकता की धारणा को व्यावहारिक आचरण के क्षेत्र पर पूरी तरह लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि व्यवहार सदैव सापेक्ष होता है। डॉ० ईश्वरचन्द्र शर्मा लिखते हैं, “यदि कोई नियम आचार का निरपेक्ष नियम बन सकता है, तो वह बाह्य न होकर आभ्यन्तरिक ही होना चाहिए । २ आचार का निरपेक्ष नियम वही हो सकता है जो मनुष्य के अन्तस् में उपस्थित हो। यदि वह नियम बाह्यात्मक हो तो वह सापेक्ष ही सिद्ध होगा, क्योंकि उसका पालन करने के लिए मनुष्य को बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर रहना पड़ेगा।
जैनों ने नैतिकता को निरपेक्ष तो माना, लेकिन केवल संकल्प के क्षेत्र तक । जैन नैतिकता 'मानस-कर्म' के क्षेत्र में नैतिकता को विशुद्ध रूप में निरपेक्ष स्वीकार करती है, लेकिन कायिक या वाचिक कर्मों के बाह्य आचरण के क्षेत्र को वह सापेक्ष कहती है । वस्तुतः विचार का क्षेत्र, मानस का क्षेत्र, आत्मा का अपना क्षेत्र है वहाँ चेतना और प्रज्ञा ही सर्वोच्च शासक है, नैतिक जीवन का साध्य उसी में स्थित रहता है, अतः वहाँ नैतिकता को निरपेक्ष रूप में स्वीकार किया जा सकता है । लेकिन आचरण के क्षेत्र में चेतन तत्त्व एकमात्र शासक नहीं है, वहाँ तो अन्य परिस्थितियाँ भी शासन करती हैं । वहाँ नैतिकता का साधनात्मक पक्ष होता है, अतः उस क्षेत्र में नैतिकता के प्रत्यय को निरपेक्ष नहीं बनाया जा सकता । वहाँ नैतिकता की सापेक्षता ही समुचित प्रतीत होती है।
जैन विचार के इतिहास में एक प्रसंग ऐसा भी आया है, जब आचार्य भिक्षु जैसे कुछ विचारकों ने नैतिकता के बाह्यात्मक नियमों को भी निरपेक्ष रूप में ही स्वीकार करने की कोशिश की। वस्तुतः जो नैतिक विचारणाएँ मात्र सापेक्ष दृष्टि को ही स्वीकार करती हैं, वे नैतिक जीवन के आचरण में उस वास्तविकता (Fact) .
१. चेलना के द्वारा अपने सतीत्व की रक्षा के लिए की गयी आत्महत्या को जैन विचारणा में
अनुमोदित ही दिया गया है। इसी प्रकार चेटक के द्वारा न्याय की रक्षा के लिए लड़े गये
युद्ध से उनके अहिंसा के व्रत को खण्डित नहीं माना गया है। २. पाश्चात्य आचारशास्त्र का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ० १३९.
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