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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
नैतिकता का निरपेक्ष पक्ष
जैन दर्शन में नैतिकता के सापेक्ष पक्ष का महत्त्व है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि जैन दर्शन में नैतिकता का निरपेक्ष पक्ष स्वीकार नहीं है। जैन तीर्थंकरों का उद्घोष था कि धर्म शुद्ध है, नित्य और शाश्वत है। नैतिकता में यदि कोई निरपेक्ष एवं शाश्वत तत्त्व नहीं है, तो फिर धर्म की नित्यता और शाश्वतता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। जैन नैतिकता के अनुसार अतीत, वर्तमान और भविष्य के सभी धर्मप्रवर्तकों ( तीथंकरों) की धर्मप्रज्ञप्ति एक ही होती है। लेकिन यह भी कहा गया है कि धर्मप्रज्ञप्ति एक होने पर भी विभिन्न तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित आचारनियमों में भिन्नता हो सकती है, जैसे कि महावीर एवं पार्श्वनाथ के द्वारा प्रतिपादित आचार-नियमों में थी। जैन विचारणा के अनुसार नैतिकता के आन्तरिक और बाह्य ऐसे दो पक्ष होते हैं, जिन्हें पारिभाषिक शब्दों में द्रव्य और भाव कहा गया है । आचरण का यह बाह्य पक्ष देश एवं कालगत परिवर्तनों के आधार पर परिवर्तनशील अर्थात् सापेक्ष होता है, परन्तु आन्तरिक पक्ष सदैव एकरूप होता है, निरपेक्ष होता है। वैचारिक या भावहिंसा सदैव अनैतिक होती है, वह कभी भी धर्ममार्ग अथवा नैतिक नियम नहीं हो सकती। लेकिन द्रव्यहिंसा या बाह्यरूप में परिलक्षित होनेवाली हिंसा सदैव ही अनैतिक अथवा अनाचरणीय ही हो, यह नहीं कहा जा सकता । आभ्यन्तर-परिग्रह अर्थात् आसक्ति सदैव ही अनैतिक है, लेकिन द्रव्य-परिग्रह को सदैव अनैतिक नहीं कहा जा सकता। संक्षेप में, जैन विचारणा के अनुसार आचरण के बाह्य रूपों में नैतिकता सापेक्ष हो सकती है, लेकिन आचरण के आन्तरिक भावों या संकल्पों के रूप में वह सदैव निरपेक्ष होती है। सम्भव है कि बाह्य रूप में अशुभ दीखनेवाला कोई कर्म अपने अन्तर में निहित किसी सदाशयता के कारण शुभ हो जाये, लेकिन आन्तरिक अशुभ संकल्प किसी भी स्थिति में नैतिक नहीं हो सकता।
जैन मान्यता में नैतिकता अपने हेतु या संकल्प की दृष्टि से निरपेक्ष होती है, परिणाम की दृष्टि से सापेक्ष होती है। दूसरे शब्दों में, नैतिक संकल्प निरपेक्ष होता है, लेकिन कर्म सापेक्ष होता है । इसी कथन को जैन परिभाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है कि व्यवहारनय से नैतिकता सापेक्ष है या व्यावहारिक नैतिकता ( Practical Morality ) सापेक्ष है; लेकिन निश्चयनय से नैतिकता निरपेक्ष है या निश्चय-नैतिकता निरपेक्ष है। जैनसम्मत व्यावहारिक नैतिकता वह है जो कर्म के परिणाम या फल पर दृष्टि रखती है और निश्चय-नैतिकता कर्ता के संकल्प पर दृष्टि रखती है। युद्ध का संकल्प किसी भी स्थिति में नैतिक नहीं हो सकता, लेकिन युद्ध का कर्म सदैव अनैतिक ही हो, यह आवश्यक नहीं। आत्महत्या का संकल्प सदैव
१. आचारांग, १।४।१।१२७. २. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय २३.
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