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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (ब) गीता का दृष्टिकोण गीता का दर्शन भी यह स्वीकार करता है कि कर्तव्याकर्तव्य का निरपेक्ष रूप में निश्चय कर पाना अत्यन्त कठिन है।' गीता में भी आचार के नियमों की देश, काल और व्यक्तिगत सापेक्षता स्वीकृत है ।२ गीता में कहा है कि देश, काल और पात्र का विचार कर जो दान दिया जाता है वही सात्विक होता है, अर्थात् आचरण के औचित्य और अनौचित्य का निर्णय देश, काल और व्यक्ति की अवस्थाओं पर निर्भर है । लोकमान्य तिलक के शब्दों में कार्याकार्य की व्यवस्था देनेवाला गीता जैसा कोई प्राचीन ग्रन्थ संस्कृत साहित्य में नहीं दिखाई देता । उन्होंने 'गीता-रहस्य' में 'कर्म-जिज्ञासा' नामक अध्याय में नैतिक नियमों की अपवादिता और सापेक्षिकता की विशद चर्चा की है और उसे हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनेक उद्धरणों के द्वारा पुष्ट भी किया है। __ महाभारत तथा मनुस्मृति आदि--महाभारत में अनेक प्रसंग ऐसे हैं जो नैतिक नियमों की सापेक्षिकता सिद्ध करते हैं। शान्तिपर्व में भीष्म पितामह कहते हैं कि ऐसा कोई आचार नहीं मिलता जो हमेशा सबके लिए समान रूप से हितकारक हो। यदि किसी एक आचार को स्वीकार किया जाता है तो दूसरा आचार उससे भी श्रेष्ठ प्रतीत होता है । एक आचार का दूसरे ओचार से विरोध भी हो जाता है।" यह भी कहा गया है कि किसी समय धर्मरूप कर्म ही अधर्मरूप और कभी अधर्मरूप दीखनेवाला कर्म ही धर्म बन जाता है, अतः भलीभाँति विचार करके ही कार्य करना चाहिए। इस प्रकार आचार के किसी एक निरपेक्ष रूप का प्रतिपादन सम्भव नहीं है। कालभेद एवं देशभेद से आचार में परिवर्तन होते रहते हैं। मनु का कथन है कि युगों के अनुरूप अर्थात् कालगत भेदों के कारण कृतयुग ( सतयुग ), त्रेतायुग, द्वापरयुग एवं कलयुग में आचार के नियम भिन्न होते हैं। एक ही क्रिया देश या काल के भेद से धर्म या अधर्म हो जाती है । जो धर्म होता है वह अधर्म हो जाता है और जो अधर्म होता है वह धर्म हो जाता है। चोरी, झूठ और हिंसा भी अवस्था-विशेष में धर्म हो जाते हैं । गीता में जिस कार्याकार्य व्यवस्थिति का प्रतिपादन है, उसका प्रयोजन यही है कि किंकर्तव्य का निश्चय देश व कालगत परिस्थितियों के अनुसार करना चाहिए। गीता का स्वधर्म का सिद्धान्त नैतिक सापेक्षता का सबसे बड़ा प्रमाण है जो वैयक्तिक १. गीता, ४११७. २. वही, १७।२०. ३. गीतारहस्य, पृ०५१. ४. महाभारत, शान्तिपर्व, २५९।१७-१८. ५. वही, ३३॥३२. ६. मनुस्मृति, १४८५. ७. महाभारत, शान्तिपर्व, ६३।११. w Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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