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निरपेक्ष और सापेक्ष नैतिकता
बना देती हैं । इस प्रकार जैन नैतिकता व्यक्ति के कर्तव्यों के सम्बन्ध में अनेकान्तवादी या सापेक्ष दृष्टिकोण अपनाती है । वह यह भी स्वीकार करती है कि सामान्य स्थिति में प्रतिमा पूजन अथवा दानादि कार्य, जो एक गृहस्थ के नैतिक कर्तव्य हैं, वे ही एक मुनि या संन्यासी के लिए अकर्तव्य होते हैं - अनैतिक एवं अनाचरणीय होते हैं । कर्तव्याकर्तव्यमीमांसा में जैन विचारणा किसी भी ऐकान्तिक दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करती । आचार्य हरिभद्र लिखते हैं कि भगवान् तीर्थंकर देवों ने न किसी बात के लिए एकान्त विधान किया है और न एकान्त निषेध ही किया है, उनका एक ही आदेश है कि जो कुछ भी कार्य तुम कर रहे हो उसे सत्यभूत होकर करो, उसे पूरी प्रामाणिकता के साथ करते रहो ।' आचार्य उमास्वाति को कथन है, "नैतिक, अनैतिक, विधि ( कर्तव्य ), निषेध ( अकर्तव्य ); अथवा आचरणीय ( कल्प ), अनाचरणीय ( अकल्प ) एकान्त रूप से नियत नहीं हैं । देश, काल, व्यक्ति, अवस्था, उपघात और विशुद्ध मनः स्थिति के आधार पर अनाचरणीय आचरणीय बन जाता है और आचरणीय अनाचरणीय । २
उपाध्याय अमरमुनिजी जैन दर्शन की अनेकान्तदृष्टि के आधार पर जैन नैतिकता के सापेक्षिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि त्रिभुवनोदर विवरवर्ती समस्त असंख्येय भाव अपने आपमें न तो मोक्ष का कारण हैं और न संसार का कारण हैं, साधक की अपनी अन्तः स्थिति ही उन्हें अच्छे और बुरे का रूप दे देती 13 अतः एकान्तरूप में न कोई आचरण शुभ होता है और न कोई अशुभ | इसे स्पष्ट करते हुए वे आगे कहते हैं कि कुछ विचारक जीवन में उत्सर्ग ( नैतिकता की निरपेक्ष या निरपवाद स्थिति ) को पकड़कर चलना चाहते हैं, जीवन में अपवाद का सर्वथा अपलाप करते हैं । उनकी दृष्टि में अपवाद ( नैतिकता का सापेक्षिक दृष्टिकोण ) धर्म नहीं, अपितु एक महत्तर पाप है । दूसरी ओर, कुछ साधक वे हैं जो उत्सर्ग को भूलकर केवल अपवाद का सहारा लेकर ही चलना चाहते नहीं आ सकते । जैन सुन्दर साधना है । *
। ये दोनों विचार एकांगी होने से उपादेय की कोटि में धर्म की साधना एकान्त की नहीं, अनेकान्त की स्वस्थ और उसके दर्शनकक्ष में मोक्ष के हेतुओं की कोई बँधी- बँधायी नियत रूपरेखा नहीं है, कोई इयत्ता नहीं है ।" अतः यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन को अनेकान्तवादी विचारपद्धति के आधार पर सापेक्षिक नैतिकता की धारणा मान्य है । यद्यपि उसका यह सापेक्ष दृष्टिकोण निरपेक्ष दृष्टिकोण का विरोधी नहीं है । जैन नैतिकता में एक
पक्ष निरपेक्ष नैतिकता का भी है, जिसपर आगे विचार किया जायेगा ।
१. उपदेशपद, ७७९.
२. प्रशमरति - प्रकरण ( उमास्वाति ), १४६; तुलना कीजिए - ब्रह्मसूत्र ( शां० ), ३३१ २५;
गीता ( शां० ) ३।३५ तथा १८।४७-४८.
३. श्री अमरभारती, मई १९६४, पृ० १५.
४. वही, फरवरी १९६५, पृ० ५.
५.
वही, मार्च १९६५, पृ० २८.
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