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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन कर्मों का दूसरों पर क्या परिणाम हुआ । अतः जनसाधारण के नैतिक निर्णय हमेशा अपूर्ण ही होंगे । ६० दूसरी ओर यह सारा जगत् ही अपेक्षाओं से युक्त है, क्योंकि जगत् की प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । ऐसे जगत् में आचरित नैतिकता निरपेक्ष नहीं हो सकती । सभी कर्म देश, काल अथवा व्यक्ति से सम्बन्धित होते हैं, इसलिए निरपेक्ष नहीं हो सकते । बाह्य जागतिक परिस्थितियाँ और कर्म के पीछे के वैयक्तिक प्रयोजन भी आचरण को सापेक्ष बना देते हैं । (अ) जैन दृष्टिकोण एक ही प्रकार से आचरित कर्म एक स्थिति में नैतिक होता है और भिन्न स्थिति में अनैतिक हो जाता है । एक ही कर्म एक के लिए नैतिक हो सकता है, दूसरे के लिए अनैतिक | जैन विचारधारा आचरित कर्मों की नैतिक सापेक्षता को स्वीकार करती है । प्राचीनतम जैन आगम आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जो आचरित कर्म आस्रव या बन्धन के कारण हैं वे भी मोक्ष के हेतु हो जाते हैं और जो मोक्ष के हेतु हैं, वे भी बन्धन के हेतु हो जाते हैं ।" इस प्रकार कोई भी अनंतिक कर्म विशेष परिस्थिति में नैतिक बन जाता है और कोई भी नैतिक कर्म विशेष परिस्थिति में अनैतिक बन सकता है । केवल साधक की मनःस्थिति, जिसे जैन परिभाषा में 'भाव' कहते हैं, आचरण के कर्मों का मूल्यांकन करती है, और उसके साथ-साथ जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र और काल को भी कर्मों की नैतिकता और अनैतिकता का निर्धारक तत्त्व स्वीकार किया है । उत्तराध्ययनचूर्णि में कहा है, "तीर्थंकर देश और काल के अनुरूप धर्म का उपदेश करते हैं । " २ आचार्य आत्मारामजी महाराज लिखते हैं कि बन्ध और निर्जरा ( कर्मों की अनैतिकता और नैतिकता ) में भावों की प्रमुखता है, परन्तु भावों के साथ स्थान और क्रिया का भी मूल्य है । 3 आचार्य हरिभद्र के अष्टक प्रकरण की टीका में आचार्य जिनेश्वर ने चरकसंहिता का एक श्लोक उद्धृत किया है, जिसका आशय यह है कि देश, काल और रोगादि के कारण मानवजीवन में कभीकभी ऐसी स्थिति भी आ जाती है जब अकार्य कार्य बन जाता है, विधान निषेध की कोटि में चला जाता है और निषेध विधान की कोटि में चला जाता है । इस प्रकार जैन नैतिकता में स्थान ( देश ), समय ( काल ), मन:स्थिति ( भाव ) और व्यक्ति इन चार आपेक्षिकताओं का नैतिक मूल्यों के निर्धारण में प्रमुख महत्त्व है । आचरण के कर्म इन्हीं चारों के आधार पर नैतिक और अनैतिक बनते रहते हैं । संक्षेप में एकान्त रूप से न तो कोई आचरण, कर्म या क्रिया नैतिक है और न अनैतिक; वरन् देश - कालगत बाह्य परिस्थितियाँ और द्रव्य तथा भावगत परिस्थितियाँ उन्हें वैसा १. आचारांग, ११४/२/१३०; देखिए-श्री अमरभारती, मई १९६४, पृ० १५. २. उत्तराध्ययनचूर्णि, २३. ३. आचारांग, हिन्दी टीका, पृ० ३७८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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