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________________ वर्थमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन उन अनेक धार्मिक क्रिया-कलापों को भी व्याप्त कर लेता है, जो शुद्धि, प्रायश्चित्त, व्रत, आदि के अन्तर्गत आते हैं। __ इस प्रकार संस्कार शब्द के साथ अनेक अर्थों का योग हो गया है। व्यक्ति के जीवन की सम्पूर्ण शुभ और अशुभ प्रवृतियाँ उसके संस्कारों के अधीन हैं, जिनमें से कुछ को वह पूर्वभव से अपने साथ लाता है और कुछ को इसी भव में संगति एवं शिक्षा, आदि के प्रभाव से अर्जित करता है। इस प्रकार संस्कार शब्द का अभिप्राय शुद्धि की धार्मिक-क्रियाओं से तथा व्यक्ति के दैहिक, मानसिक एवं बौद्धिक परिष्कार के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों से है, जिनसे वह सभ्य समाज का सदस्य हो सके। साधारणतः, यह समझा जाता था कि सविधि किए गए संस्कारों के अनुष्ठान से सुसंस्कृत व्यक्ति में विलक्षण तथा अवर्णनीय गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है। दिगम्बर-परम्परा के पुराणों में संस्कार के लिए 'क्रिया' शब्द का प्रयोग किया गया है। यह सत्य है कि संस्कार शब्द सामान्यतया धार्मिक विधि-विधान या क्रिया का सूचक रहा है। संस्कार की जीवन में उपादेयता एवं महत्व संस्कारों की जीवन में उपादेयता एवं महत्व की चर्चा करने से पूर्व हमें यह जानना होगा कि प्राचीन समय में संस्कारों का क्या प्रयोजन था? जब हम प्राचीन इतिहास के गर्भ में झांकते हैं, तो वे परिस्थितियाँ, जिनमें इन संस्कारों का प्रादुर्भाव हुआ था, आज अतीत के गर्भ में विलीन हो चुकी हैं और उनके चारों ओर लोक-प्रचलित अंधविश्वासों का जाल-सा बिछ गया है, अतः उन सुदूर अतीत की समस्याओं पर दृष्टिपात करने के लिए तात्कालिक-तथ्यों का गंभीर ज्ञान अपेक्षित है। संसार के अन्य देशों की भाँति हिन्दुओं का भी विश्वास था कि वे चारों ओर से ऐसे दैविक-प्रभावों से घिरे हुए हैं, जो बुरा और भला करने की शक्ति रखते हैं। उनकी धारणा थी कि उक्त प्रभाव जीवन के किसी महत्वपूर्ण अवसर पर व्यक्ति को प्रभावित कर सकते हैं; अतः वे अमंगलजनक प्रभावों के निराकरण तथा हितकर प्रभावों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया करते थे, जिससे मनुष्य बिना विघ्न-बाधा के अपना विकास कर सके और दिव्य-शक्तियों की सहायता प्राप्त कर सके। यही प्रयत्न संस्कार कहे जाते हैं। मानव-जन्म से असंस्कृत होता है, किन्तु संस्कारों से संस्कृत होकर उसके व्यक्तित्व के भौतिक एवं आध्यात्मिक-पक्ष निखर उठते हैं, साथ ही उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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