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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन है। जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा गया है- “तपसा निर्जरा च"७४, अर्थात तप करने से कर्मों की निर्जरा होती है। आचारदिनकर में भी कहा गया है- “छ: प्रकार के बाह्य-तपों के करने से कर्मों की निर्जरा होती है, किन्तु समझपूर्वक की गई तपस्या ही मोक्ष का कारण बनती है। अज्ञानता में एवं अविधि से किया गया तप कर्मबंध का हेतु बन जाता है, अतः कौन-सा तप किस प्रकार किया जाना चाहिए, तथा कौन-से तप का क्या प्रभाव है, इस विषय का विवेचन इस प्रकरण में किया गया है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्पराओं में भी तप का विधान कर्मों की निर्जरा करने हेतु बताया गया है। ४०. पदारोपण-विधि - इस संस्कार का मुख्य प्रयोजन योग्य व्यक्तियों को उनसे सम्बन्धित योग्य पदों पर स्थापित करना है। योग्य व्यक्ति ही अपने आश्रितों को सही निर्देश दे सकता है तथा उनका पालन-पोषण कर सकता है, स्वामी या प्रशासक अगर अच्छा होगा, तो उसके अधीनस्थ भी सामान्यतः अच्छे होंगे जैसा कि कहा गया है- "यथा राजा, तथा प्रजा", अर्थात् जैसा राजा होता है, वैसी ही उसकी प्रजा होती है, अतः किसी समाज की सुव्यवस्था हेतु योग्य पदों पर योग्य व्यक्तियों का चयन किया जाना आवश्यक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारदिनकर में वर्णित चालीस संस्कारों या विधि-विधानों का एक प्रयोजन है और उन्हीं प्रयोजनों से ये संस्कार किए जाते " तत्त्वार्थसूत्र, अनु.: पं. खूबचन्द्रजी, सूत्र-६/३, पृ.-३८१, शेठ मणीलालरेवाशंकर जगजीवन जवेरी, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ५ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६३, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६३, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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