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________________ साध्वी मोक्षरला श्री के पाँच स्थूल पापों के आजीवन त्याग का संकल्प करवाना है।५३ वैदिक-परम्परा में हमें व्रतारोपण-संस्कार की भाँति किसी संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है। १६. अन्त्य-संस्कार आचारदिनकर के अनुसार “अन्त्य-संस्कार, अर्थात् सल्लेखना का ग्रहण आत्मशान्ति एवं अन्तिम समय में शुभध्यान के लिए किया जाता है, क्योंकि अन्तिम समय में जीव की जैसी मति होती है, उसकी गति (परभव) वैसी ही होती है।"५० शव की दहनक्रिया देह-संस्कार के प्रयोजन से की जाती है। शव की देह पर जो वस्त्रादि डाले जाते हैं, वे उसे संस्कार के योग्य बनाने के लिए हैं। इस प्रकार की अन्त्यक्रियाएँ तथा तनिमित्त की जाने वाली स्नात्रपूजाए आदि मृतात्मा के शुभयोनि की प्राप्ति, उसकी सनाथता के आख्यापन एवं पुण्य का संचय करने के उद्देश्य से की जाती है।" दिगम्बर-परम्परा में श्रावक के लिए तो इस संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता है। हाँ, उसे अन्तिम समय में मुनि-दीक्षा प्रदान करके संलेखना-विधि अवश्य करवाई जाती है। वैदिक-परम्परा में यह संस्कार मृतदेह की अन्तिम क्रिया करने के उद्देश्य से किया जाता है। १७. ब्रह्मचर्यव्रत-संस्कार आचारदिनकर के अनुसार "ब्रह्मचर्यव्रत का ग्रहण काम-भोगों से विरक्ति के अभ्यास हेतु एवं आत्मसंयम के परीक्षणार्थ किया जाता है। ब्रह्मचर्यव्रत सभी व्रतों का मूल है। ब्रह्मचर्यव्रत के भग्न होने से अन्य सभी व्रतों का पालन भी निरर्थक हो जाता है, क्योंकि कर्मों के आस्रव का निरोध नहीं होता है। व्यक्ति ऐन्द्रिक-विषयों में गृद्ध बना रहता है तथा संभोग की क्रिया में स्त्री की आवश्यकता होती है। स्त्री परिग्रहरूप होती है। पुनः, स्त्री के साथ मैथुनक्रिया भी आरम्भ का हेतु है। आरम्भ जीवों की हिंसा का सूचक है। पुनः, संभोगक्रिया में अनेक मानव-जीवों, अर्थात् समूर्छिम मनुष्यों का घात होता है, अतः मैथुन सभी पापकर्मों का मूल-मार्ग है, इसीलिए उससे विरत होना आवश्यक है।"५ इस प्रकार इस संस्कार का मूल उद्देश्य व्यक्ति को ऐन्द्रिक-विषयों से विरक्त करना है। वैदिक-परम्परा एवं दिगम्बर-परम्परा में यद्यपि इसे संस्कार के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु वहाँ भी ब्रह्मचर्यव्रत का प्रयोजन काम-भोगों से विरक्ति ही ५३ आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनु.- डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तालीसवाँ, पृ.-२५०, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण २०००. ५४ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. " आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३६१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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