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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 385 वर्धमानसूरि के अनुसार जैन ब्राह्मणों का आचार्य पवित्र कुलवाला, द्वादशव्रत का धारक, अन्य देवों तथा अन्य लिंगिओं को प्रणाम न करने वाला, उनके साथ संभाषण न करने वाला, उनकी पैंशसा न करने वाला, सावध व्यापार का त्यागी, दुष्प्रतिग्रह से रहित, नित्य नवकारसी आदि प्रत्याख्यान करने वाला, आदि गुणों से युक्त होता है। वैदिक-परम्परा के अग्निपुराण १५ आदि ग्रन्थों की आचार्यपदाभिषेक विधियों में हमें विप्राचार्य के गुणों (लक्षणों) का वर्णन नहीं मिलता है, क्योंकि वहाँ आचार्यपद वंशपरम्परागत चलता है, इसलिए सम्भव है कि वहाँ इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा न की गई हो। आचारदिनकर के अनुसार पूर्वोक्त गुणों से युक्त, ब्रह्मचर्य को धारण करने वाले उस विप्र को, जिसका भद्राकरण-संस्कार किया जा चुका हो और जो मात्र शिखाधारी एवं उत्तरासंग से युक्त हो, ऐसे उत्तम गुण वाले ब्राह्मण को मुहूर्त के आने पर पौष्टिककर्म पूर्वक चैत्य, उपाश्रय, गृह, उद्यान अथवा तीर्थ में वामपार्श्व में स्थापित करके समवसरण की तीन प्रदक्षिणा करवानी चाहिए। तत्पश्चात् किस प्रकार से देववन्दन करें, किन-किन देवताओं का कायोत्सर्ग एवं स्तुति करें तथा लग्न समय के आने पर शिष्य किस प्रकार से षोडशाक्षरी परमेष्ठी महाविद्या का ग्रहण करे? इसका भी आचारदिनकर में उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् शिष्य गुरु एवं समवसरण की प्रदक्षिणा लगाकर शक्रस्तव का पाठ करें तथा यतिगुरु हो, तो द्वादशावर्त्तवन्दन अथवा गृहस्थ गुरु को दण्डवत् प्रणाम करे। आचार्य शिष्य को किस प्रकार से वासक्षेप दे, किस प्रकार से वेदमंत्र का उच्चारण करें, एवं पौष्टिकदण्डक बोले - इसका भी मूलग्रन्थ में उल्लेख किया गया है। इस विधि के अन्त में गुरु किस प्रकार से शिष्य को विविध विधि-विधान करने या करवाने की अनुज्ञा दे, इसका भी उल्लेख किया गया है। अग्निपुराण में हमें आचार्याभिषेक की इतनी लम्बी प्रक्रिया का उल्लेख नही मिलता है। अग्निपुराण के अनुसार मिट्टी के कलशों को जो कि सुन्दर रत्नों से समन्वित हो, मध्य और पूर्व आदि में न्यस्त करना चाहिए। ये कुम्भ सहस्र अथवा शतवती होने चाहिए। मण्डप में जो मण्डल है, उसमें भगवान् विष्णु को पीठ पर प्राची तथा ऐशानी * आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चालीसवाँ, पृ.- ३७६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. * अग्निपुराण, सं.-पं. श्रीराम शर्मा, अध्याय-१३५, पृ.- १८३, संस्कृति संस्थान, ख्वाजा कुतुब, वेदनगर, बरेली, संशोधित संस्करण : १६५७. १६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चालीसवाँ, पृ.- ३७६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. ८% अग्निपुराण, सं.-पं. श्रीराम शर्मा, अध्याय-१३५, पृ.- १८३, संस्कृति संस्थान, ख्वाजा कुतुब, वेदनगर, बरेली, संशोधित संस्करण : १६८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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