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________________ 384 साध्वी मोक्षरत्ना श्री नामकरण विधि तदनन्तर वर्धमानसूरि ने नामकरण-विधि का वर्णन किया है। नाम की क्या उपयोगिता है, शास्त्र में कितने प्रकार के नाम बताए गए है, कौनसे नाम प्रशस्त हैं तथा प्राचीनकाल में जैन साधुसंस्था में नाम की क्या व्यवस्था थी? इसका उल्लेख भी इस प्रकरण में प्रसंगवश हुआ है। इसके साथ ही मूलग्रन्थ में योनि-वैर, नक्षत्रों के गण, वैराष्टक का उल्लेख करते हुए-(१) योनि (२) वर्ग (३) लभ्यालभ्य (४) गण (५) राशि भेद के अनुसार नाम रखने के लिए कहा गया है। तदनन्तर साधुओं के नाम के पूर्व के पदों यथा- देव, गुण, शुभ, आगम, जिन, कीर्ति आदि तथा उत्तरपदों यथा- शशांक, कुम्भ, शैल, अब्धि, कुमार आदि का उल्लेख हुआ है। साध्वियों के नाम के पूर्वपद यतियों के समान ही होते हैं, तथा उत्तरपद मति, चूला, प्रभा, देवी, लब्धि, सिद्धि, वती होते हैं। प्रवर्तिनी एवं महत्तरा के नाम, विद्वान विप्रों के नाम, क्षत्रियों के नाम के पूर्वपद एवं उत्तर पद तथा वैश्य, शूद्र, कारूओं के नाम एवं पशुओं के नाम कैसे हों? इसका भी मूलग्रन्थ में विचार किया गया है। __ इस विधि की विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा अनुवादित आचारदिनकर ग्रन्थ को देखा जा सकता है। तुलनात्मक विवेचन आचारदिनकर के इस प्रकरण में वर्णित पदारोपण की विधियों में से हमें दो विधियों, यथा-आचार्यपदाभिषेक, राज्याभिषेक इन दो विधियों का उल्लेख मिला है, जिनकी तुलना हम यहाँ करेंगे। अन्य पदारोपण की विधियों, यथा-गच्छनायकपदविधि, जैन ब्राह्मण उपाध्यायपदविधि, स्थानपति-पदारोपण आदि विधियों के उल्लेख हमें, उपलब्ध वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों मे देखने को नहीं मिले। धर्मशास्त्र के इतिहास में मंत्री,१२ सेनापति १३ आदि के गुणों का उल्लेख तो अवश्य मिलता है, किन्तु उनमें पदारोपण की विधि नहीं दी गई है। ____ आचारदिनकर में विप्रों की आचार्यपदविधि का उल्लेख करते हए वर्धमानसूरि ने सर्वप्रथम जैन ब्राह्मण के आचार्य-पद के योग्य लक्षणों का निरूपण किया है। १२ धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-द्वितीय), डॉ. पांडुरंग वामनकाणे, अध्याय-४, पृ.- ६२५, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण : १६७३. ३ धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-द्वितीय), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-४, पृ.- ६३५, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, द्वितीय संस्करण : १६७३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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