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________________ साध्वी मोक्षरत्ना श्री का ग्रहण होता है । केवली द्वारा निर्दिष्ट आचार ही परमार्थ है तथा सज्जनों द्वारा मान्य वेश एवं आचरण व्यवहारमार्ग कहा जा सकता है। यह सर्वसम्मत है कि पापकर्मों का क्षय होने से एवं पुण्यकर्म का उदय होने से व्यक्ति के दान, तप, ब्रह्मचर्य एवं करुणा की शुभभावना उत्पन्न होती है। आचार और वेश- ये दोनों कल्याणकारी हैं, अतः इनसे सम्बन्धित जो क्रियाएँ हैं, वे सभी कल्याणकारी हैं। इस प्रकार इन संस्कारों का प्रयोजन स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। ,,२६ 32 पं. श्रीराम शर्मा के अनुसार “ सामान्यतः, तत्वदर्शी ऋषियों-मुनियों ने धर्म एवं अध्यात्म का विशालकाय ढाँचा एक ही उद्देश्य से लेकर खड़ा किया है कि मानव के ऊपर जन्म-जन्मान्तरों से चढ़े हुए कुसंस्कार दूर हों और उनके स्थान पर सुसंस्कृत आदर्शों, मान्यताओं, भावनाओं एवं प्रवृत्तियों का विकास हो सके । पूजा, उपासना, जप-तप, स्वाध्याय, विधि-निषेध एवं कर्मकाण्डों का विस्तृत विधि-विधान केवल इसी प्रयोजन के लिए है कि इस अवलम्बन को स्वीकार कर व्यक्ति निरन्तर सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनता चला जाए, सतत् कषाय - कल्मषों का परिशोधन करता जाए, जिससे वह आत्मिक - सुख को प्राप्त कर सके।' ,,२७ आचारदिनकर में वर्णित चालीस संस्कारों का क्या उद्देश्य है, अर्थात् वे किन प्रयोजनों से अभिभूत होकर किए जाते हैं- इसका वर्णन ग्रन्थकार ने व्यवहार-परमार्थ (व्यवहारमार्ग और परमार्थमार्ग) में किया है, जिन्हें निम्न बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा रहा है १. गर्भाधान-संस्कार , २८ गर्भाधान-संस्कार “गर्भ की प्रसिद्धि हेतु तथा स्वकुल के लोगों को आनंद प्रदान करने के उद्देश्य से किया जाता है। इस संस्कार के मध्य जो शान्तिककर्म किया जाता है, वह गर्भ के रक्षण हेतु तथा मंत्र का प्रयोग भ्रूण के विकास में आने वाले विध्नों का नाश करने हेतु किया जाता है। प्रयोजन गर्भ की प्रसिद्धि करना एवं गर्भ की रक्षा करना है । दिगम्बर एवं वैदिक - परम्परा में इस संस्कार का प्रयोजन सन्तान की प्राप्ति करना माना गया है। २. पुंसवन संस्कार संक्षेप में इस संस्कार का वर्धमानसूरि के अनुसार " इस संस्कार का प्रयोजन गर्भ के दोषों को दूर करना, गर्भ की वृद्धि एवं गर्भ रहने हेतु उल्लास प्रकट करना, अर्थात् वर्धापन २६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३८८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. षोडश संस्कार विवेचन, पं. श्रीराम शर्मा, पृ. २.२५, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा, प्रथम संस्करण १६६५ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३८६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. २७ २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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