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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 31 संस्कारों का निर्धारण हुआ है, उनकी सोलह की संख्या का निर्धारण भी वस्तुतः वैदिक-परम्परा से प्रभावित है। यहाँ वर्धमानसूरि ने दिगम्बर-पुराण-साहित्य का अनुसरण न करके हिन्दू-परम्परा का ही अनुसरण किया है। संस्कारों का प्रयोजन सुसंस्कृत जीवन ही मनुष्य-जन्म की सार्थकता है। संस्कारों से रहित व्यक्ति धरती के लिए भाररूप और समाज के लिए अभिशाप होता है तथा उसका अपना जीवन भी निरर्थक होता है। यदि जनसामान्य के विचार और कार्य सुसंस्कृत ढाँचे में ढल जाएं, तो व्यक्ति और समाज का विविध-पक्षीय विकास हो सकता है और समाज में सुखशान्ति रह सकती है। यह तो संस्कार के प्रयोजन के सम्बन्ध में एक सामान्य अवधारणा है, किन्तु संस्कारों जैसी प्राचीन संस्थाओं के मूल प्रयोजन की जब हम गवेषणा करते हैं, तो मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं, क्योंकि जिन परिस्थितियों में उन संस्कारों का प्रादुर्भाव हुआ था, वे तो युगों के गर्भ में छिपी हुईं हैं और उनके चारों तरफ लोकप्रचलित अन्धविश्वासों, आडम्बरों एवं कोरे क्रियाकाण्डों का जाल-सा बिछ गया है। उनके मूल प्रयोजन उनसे कहीं दूर हो गए हैं, जिनके कारण व्यक्ति उनसे समुचित लाभ ही प्राप्त नहीं कर पाता है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति के मन में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि क्रियायोग से मनुष्य को कोई विशेष प्रतिभा, कीर्ति, तेजस्विता, आदि की प्राप्ति नहीं होती है, तो फिर इन क्रियाओं को करने का क्या प्रयोजन है? जिस प्रकार अग्नि जलाने तथा पचन-पाचन में सक्षम है, उसी प्रकार मंत्रों के संस्कार के बिना भी मनुष्य कार्य करने में समर्थ होता है। दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार ईंधन, आदि से पुष्ट अग्नि जलाने में सक्षम है, उसी प्रकार आहारादि से पुष्ट व्यक्ति की देह भी कार्य करने में सक्षम होती है। इस प्रकार यदि संस्कार करने का कोई प्रयोजन प्रतीत नहीं होता है, तो फिर संस्कार सम्बन्धी विधि-विधान हेतु व्यर्थ में वित्त का व्यय करने से क्या लाभ? क्या पुराणों में विहित ये क्रियाएँ व्यर्थ हैं? उत्तमता से अनुष्ठित ये संस्कार सम्बन्धी क्रियाएँ किस प्रकार हमें संसार-समुद्र से पार उतार सकती हैं?" इसके प्रत्युत्तर में वर्धमानसूरि कहते हैं- इहलौकिक एवं पारलौकिक-कर्मों की फलश्रुति के सम्बन्ध में विद्वज्जनों एवं केवलियों के वचन ही सम्यक् रूप से ग्राह्य एवं प्रमाण्य हैं। स्याद्वाद-प्रधान अर्हत् मत को उत्तम कहा गया है। उसके अनेकान्त शब्द से विविध सम्भावनाओं २२ षोडश संस्कार विवेचन, पं.श्रीराम शर्मा, पृ.-२२५, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा, प्रथम संस्करण १६६५. " हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-दो (द्वितीय परिच्छेद), पृ.-२७, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, पंचम संस्करण १६६५. * आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ.-३८८, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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