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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 347 उपसंहार उपर्युक्त तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् यह संशय होना स्वाभाविक है कि बलि-विधान की क्या आवश्यकता है? इस विधान की क्या उपयोगिता है? यद्यपि जैन-सिद्धांत की दृष्टि से संस्कार की इतनी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि व्यक्ति कर्माधीन है, सुख या दुःख की प्राप्ति तो व्यक्ति के स्वकर्म पर आश्रित है। किसी देवी-देव को बलि प्रदान करने से न तो पूर्वबद्ध कर्म ही बदल सकते हैं और न ही शान्ति की प्राप्ति हो सकती है। तो फिर बलि विधान क्यों किया जाता है? जब हम इस पर गहराई से विचार करते हैं, तो हमारे सारे संशय स्वतः ही मिट जाते है। बलि-विधान क्या है- बलि विधान एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें गृहस्थ को अपने सामर्थ्य के अनुसार देवताओं, पितरों आदि को भोजन का एक अंश देना होता है। यह प्रक्रिया मनुष्य को त्याग करना सिखाती है। वैसे तो व्यक्ति अपने स्वजनों के लिए खूब त्याग करता है, किन्तु इस विधान के माध्यम से उसके दायरे को विस्तृत करके परोपकार की वृत्ति का सर्जन किया जाता है। इस विधान के माध्यम से ही व्यक्ति में त्याग की भावना प्रगाढ़ होती है और एक समय ऐसा आता है, कि जब उसे संसार का त्याग करना होता है, तब उसके मन में लेशमात्र भी दुःख या आर्तता का भाव नहीं आता है। इस प्रकार त्याग की वृत्ति को प्रबल करने हेतु यह संस्कार उपयोगी ही नहीं, आवश्यक भी है। प्रायश्चित्त विधि प्रायश्चित्त-विधि का स्वरूप वैदिक विधानों ने प्रायश्चित्त शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ इस प्रकार से किया है, प्रायः- तप, चित्त- दृढ़संकल्प, अतः प्रायश्चित्त का तात्पर्य हुआ, तप करने का दृढ़संकल्प। याज्ञवल्क्यस्मृति की बालम्भट्टी टीका में एक श्लोकार्द्ध उद्धृत है, जिसके अनुसार इस शब्द की व्युत्पत्ति प्रायः पाप, चित्त- शुद्धि अर्थात् पाप की शुद्धि से बताई गई है। इसके अतिरिक्त भी प्रायश्चित्त के कई अर्थ हैं, यथा- परिशोध, पापनिष्कृति, क्षतिपूर्ति, संतोष, सुधार, पाप से निस्तार पाने के लिए धार्मिक साधना इत्यादि। यहाँ याज्ञवल्क्यस्मृति की बालम्भट्टी टीका में उल्लेखित प्रायश्चित्त शब्द की व्याख्या ही युक्तिसंगत प्रतीत होती है। अभिधान राजेन्द्रकोश के अनुसार-“पापं छिन्नतीति पापच्छिम्", अतः जो पापों का छेदन करे उसे ७४ हिन्दूधर्मकोश, डॉ. राजबली पाण्डेय, पृ.-४३०, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७८. * संस्कृत हिन्दीकोश, वामनशिवराम आप्टे, पृ.- ६६१, भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी, १६६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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