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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 333 तदनन्तर ग्रहशान्ति की विधि बताई गई है-इसमें सर्वप्रथम पूजा, पाठ एवं हवन द्वारा की जाने वाली शान्ति का उल्लेख किया गया है। तदनन्तर लोकाचार के अनुसार ग्रहशान्ति हेतु स्नानविधि बताई गई है। विधि के अन्त में किस ग्रह की शान्ति हेतु कौन-कौन से रत्न धारण करने चाहिए, इसका भी उल्लेख किया गया है। विस्तारभय के कारण हम इन सब बातों का उल्लेख यहाँ नहीं कर रहे है। एतदर्थ विस्तृत जानकारी मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के तृतीय भाग के चौतीसवें उदय से प्राप्त की जा सकती है। तुलनात्मक विवेचन ____वर्धमानसूरि के अनुसार शान्तिककर्म करने हेतु सर्वप्रथम स्नात्रपीठ पर शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा को स्थापित करना चाहिए। कदाच् शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा उपलब्ध न हो, तो अन्य तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिमा को शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा मानकर, अर्थात मंत्र एवं वासक्षेपपूर्वक अन्य जिनप्रतिमा में शान्तिनाथ भगवान् की धारणा करके उसकी स्थापना करें, तत्पश्चात् अर्हत्कल्पविधि से परमात्मा की पूजा करके बृहत्स्नात्र विधि से कुसुमांजलि अर्पण करें। फिर बिम्ब के आगे उत्तम धातुओं के सात पीठों की स्थापना करके उन पर क्रमशः पंचपरमेष्ठी, दिक्पालों, राशियों, नक्षत्रों, नवग्रहों, विद्या देवियों एवं गणपति-कार्तिकेय-क्षेत्रपाल तथा चतुर्निकाय देवों की स्थापना करें। इन सातों पीठों की विधिपूर्वक पूजा करके उनको सन्तुष्ट करने हेतु हवन करें। तत्पश्चात् बृहत्स्नात्र विधि से प्राप्त जल को संचित करके विधिपूर्वक स्थापित शान्तिकलश में शान्तिदण्डक पूर्वक कुश से डालते है। तीन बार शान्तिकदण्डक से अभिमंत्रित उस शान्तिकलश के जल से शान्तिककर्म करवाने वाले को तथा उसके परिवारजनों को अभिसिंचित करते हैं तथा अन्त में सर्वदेवों का विसर्जन करते है। दिगम्बर-परम्परा के प्राचीनतम ग्रन्थों में हमें शान्तिककर्म-विधान देखने को नहीं मिला। प्रतिष्ठासारोद्धार में प्रतिष्ठा-विधि की जलयात्रा-विधि के प्रसंग में हमे शान्तिविधान के कुछ उल्लेख मिलते है। प्रतिष्ठासारोद्धार के अनुसार ८° शान्तिकर्म आंरभ करने के लिए सरोवर के किनारे पुष्पांजलि निक्षेपित करके मंत्रपूर्वक सरोवर को जल से अर्घ्य देते हैं। तत्पश्चात् मंडल की पूर्वादि चारों दिशाओं में सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधुओं का स्थापन करते हैं तथा विदिशाओं में मंगल, लोकोत्तम, एवं शरण- इन तीनों को लिखते है। सिद्धों के ऊपर अत्यन्त ६७६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चौतीसवाँ, पृ.-२२०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १९२२. ६८ प्रतिष्ठासारोद्धार, पं. आशाधर जी, अध्याय-२, पृ.-२२-२३, पं. मनोहरलाल शास्त्री जी, जैन ग्रन्थ उद्धारक कार्यालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६७४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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