SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 322 साध्वी मोक्षरत्ना श्री स्थापित न करें। बारह अंगुल से कम परिमाण वाले बिम्ब को सर्व साधारण लोगों के लिए निर्मित चैत्य में स्थापित नहीं करना चाहिए। गृह चैत्य में एक अंगुल से लेकर ग्यारह अंगुल परिमाण की प्रतिमा पूजा हेतु स्थापित करें। अधिक या कम परिमाण वाली, विषम अंग वाली और अप्रतिष्ठित प्रतिमा अमंगलकारक होती हैइत्यादि प्रतिमा सम्बन्धी विस्तृत चर्चा इस विधि में की गई है। इसके साथ ही वर्धमानसूरि ने जिनप्रासाद में कौनसे भाग में किसकी प्रतिमा स्थापित करें तथा गृहचैत्य के बिम्ब के क्या लक्षण होने चाहिएं? इसकी भी चर्चा उन्होंने अपने इस प्रकरण में की है। वास्तुसारप्रकरण में भी प्रतिष्ठा-निर्माण सम्बन्धी विस्तृत जानकारी मिलती है। इसी प्रकार विवेकविलास में भी तत्सम्बन्धी यत्किंचित् सूचनाएँ उपलब्ध होती है। दिगम्बर-परम्परा के प्रतिष्ठासारोद्धार आदि में भी हमें प्रतिमा के लक्षण आदि की चर्चा मिलती है, यथा६४७- अपने घर के चैत्यालय में एक विस्तति से अधिक परिमाण वाली प्रतिमा नहीं रखें, उसे सार्वजनिक जिन मंदिर में ही रखकर पूजें। ऐसी प्रतिमा प्रतिष्ठा के योग्य नही होती है, जो कि पहले प्रतिष्ठित हो, जिनलिंग के सिवाय दूसरा आकार हो, पहले शिव आदि आकार बना हो, फिर फोड़ कर जिनदेव का आकर किया हो, इत्यादि। इसी प्रकार वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों, यथा- अग्निपुराण, प्रतिष्ठामयूख में विष्णु, कृष्ण, ब्रह्म, आदि की प्रतिमाओं के लक्षणों की चर्चा मिलती है, किन्तु शिल्पशास्त्र के कुछ ग्रन्थों में • विष्णु, शिव आदि की प्रतिमा के साथ जिनप्रतिमा के भी लक्षण दिए गए है। फिर भी वर्धमानसूरि ने जितनी विस्तृत चर्चा इस सम्बन्ध में की है, उतनी विस्तृत चर्चा हमें अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती है। जिन-प्रतिमा की प्रतिष्ठा से पूर्व कितने-कितने क्षेत्र की शुद्धि करनी चाहिए- इसका उल्लेख करते हुए वर्धमानसूरि ने क्षेत्र का जघन्यतः, मध्यमतः एवं उत्कृष्टतः परिमाण बताया है। उनके अनुसार प्रतिष्ठा से पूर्व उतने क्षेत्र की विधिपूर्वक शुद्धि करनी चाहिए। राजा से अमारि घोषणा करवानी चाहिए। राजा या नगर के अधिपति को प्रचुर मात्रा में भेट देकर प्रतिष्ठा की अनुज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। सोमपुरा, अर्थात् मन्दिर या मूर्ति के निर्माता को वस्त्र, मुद्रिका आदि स्वर्णाभूषण दान में देने चाहिए तथा अपने स्थान से पचास योजन की परिधि में स्थित आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविकाओं को आमंत्रित करना ६"वास्तुसार प्रकरण, अनु.- पं. भगवानदास जैन, प्रकरण-२, पृ.-७३-६५, राजराजेन्द्र, प्रकाशन ट्रस्ट, अहमदाबाद, १६८६६. प्रतिष्ठा सारोद्धार, पं. आशाधरजी, अध्याय-१, पृ.-६, पं. मनोहरलाल शास्त्री, श्री जैन ग्रन्थ उद्धारक कार्यालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६७४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy