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________________ 318 साध्वी मोक्षरला श्री बिम्ब के प्रभाव को बढ़ाने के उद्देश्य से की जाती है, इत्यादि। संक्षेप में इस विधि का प्रयोजन पाषाण आदि से निर्मित प्रतिमा को पूजनीय बनाकर विभिन्न क्रियाओं द्वारा उसका संरक्षण, उपद्रवों का शमन एवं बिम्ब के प्रभाव में वृद्धि करना है। यह विधि कब की जानी चाहिए? इस सम्बन्ध में वर्धमानसूरि ने ज्योतिष सम्बन्धी विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार मूला, पुनर्वसु, स्वाति, अनुराधा, हस्त, श्रवण, रेवती, रोहिणी और उत्तरात्रय नक्षत्र प्रतिष्ठा एवं दीक्षा हेतु श्रेष्ठ कहे गए है। शास्त्रों में कहे गए सात दोषों का त्याग करके इन नक्षत्रों में प्रतिष्ठा-विधि की जानी चाहिए। सिंहस्थ गुरु के वर्ष को छोड़कर तथा मंगलवार को छोड़कर शुभ वर्ष, मास, नक्षत्र, वार की शुद्धि देखकर ही प्रतिष्ठा का कार्य किया जाना चाहिए। तीर्थंकर परमात्मा के जन्म नक्षत्र में तथा मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा और पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्र में प्रतिष्ठा नहीं करनी चाहिए। इसी प्रकार दूसरे ग्रहों से ग्रसित ग्रह, उदित एवं अस्तगत ग्रह-नक्षत्र में एवं क्रूर तथा उग्र ग्रहों से आक्रान्त नक्षत्रों में भी प्रतिष्ठा नहीं करनी चाहिए। विधिमार्गप्रपा, पंचाशकप्रकरण आदि में हमें प्रतिष्ठा मुहूर्त के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होते है। वास्तुसार प्रकरण, कल्याणकलिका में अवश्य इससे सम्बन्धित विस्तृत उल्लेख मिलते है। दिगम्बर-परम्परा में प्रतिष्ठा-विधि कब की जाए? इससे सम्बन्धित उल्लेख प्राप्त होते है। प्रतिष्ठापाठ के अनुसार निमित्त ज्ञानी ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता द्वारा निर्दिष्ट दिन में प्रतिष्ठा-विधि की जानी चाहिए। प्रतिष्ठाकार्य में मंगलवार, शनिवार एवं रविवार का त्याग करना चाहिए। सिद्ध, अमृत आदि योग की योजना करके तथा अमावस्या का त्याग करके की गई प्रतिष्ठा कर्ता के लिए सुखकारी होती है। इसी प्रकार जिस तिथि में जिस परमात्मा का जो कल्याणक हुआ हो, उस कल्याणक-तिथि में की गई प्रतिष्ठा शुभ होती है। उत्तरात्रय, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, श्रवण- ये नक्षत्र तथा रेवती, रोहिणी और अश्विनी नक्षत्र में यदि शुभयोग हो, तो ये भी प्रतिष्ठा हेतु ग्राह्य है। चित्रा, मघा, स्वाति, भरणी, मूल नक्षत्रों को केवल अपरिहार्य परिस्थिति में अंगीकार किया जा सकता है, इत्यादि। वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में भी हमें विष्णु, ब्रह्मा, शिन आदि देवों के प्रतिष्ठा सम्बन्धी काल का उल्लेख मिलता है। जैसा कि प्रतिष्ठा महोदधि में कहा गया है४२- पूर्वाषाढ़ा; उत्तराषाढ़ा मूल, उत्तरात्रय, ज्येष्ठा, श्रवण, रोहिणी, ६४० आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- तेंतीसवाँ, पृ.-१४३-१४५, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ६४" प्रतिष्ठापाठ, जयसेनाचार्य विरचित, पृ.-४५-४८, सेठ हीरालाल नेमचंद डोशी, मंगलवार पेठ, शोलापुर, वी. सं. २४५२ प्रतिष्ठामहोदधि, स्व. प. श्री वायुनंदन मिश्र, प्र.-१, चौखम्बा अमरभारती प्रकाशन, वाराणसी, पंचम संस्करण २००५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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