________________
वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
309
इसका भी उल्लेख इस ग्रन्थ में किया गया है। मुनि की अंतिम क्रिया के पश्चात् अन्य मुनिजनों को किस प्रकार से देववन्दन करना चाहिए, मुनि की मृत्यु से कितने दिन का अस्वाध्यायकाल लगता है, इत्यादि बातों का भी उल्लेख
आचारदिनकर में किया गया है। विस्तारभय से सबका उल्लेख यहाँ नहीं कर रहे हैं। एतदर्थ मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के द्वितीय भाग के बत्तीसवें उदय को देखा जा सकता है। तुलनात्मक विवेचन
__ जैन-परम्परा में संलेखना के उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य-इस प्रकार तीन भेद किए गए हैं। श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार २० संलेखना उत्कृष्टतः बारह वर्ष, मध्यमतः एक वर्ष तथा जघन्यतः छः मास की होती है। सामान्यतः श्वेताम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में प्रायः समाधिमरण सम्बन्धी विधियों में उत्कृष्ट संलेखना-विधि का ही उल्लेख मिलता है और यही कारण है कि स्वयं वर्धमानसूरि ने भी यहाँ उत्कृष्ट संलेखना-विधि को विवेचित किया है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार भी संलेखना उत्कृष्टतः बारह वर्ष, जघन्यतः अन्तमुहूर्त तथा मध्यमतः इन दोनों के बीच का अन्तरवर्तीकाल की होती है।
वर्धमानसरि ने मुनि की अंतिमसंलेखना के उत्कृष्टकाल में की जाने वाली तपस्या का उल्लेख किया है। आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने तप की जो विधि बताई है, वही विधि पंचवस्तु, संवेगरंगशाला आदि में भी मिलती है। यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र में भी संलेखना की विधि बताते हुए बारह वर्ष के दरम्यान किए जाने वाले तप का निर्देश दिया गया है, किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित विधि आचारदिनकर में निर्दिष्ट विधि से कुछ भिन्न है। उत्तराध्ययनसूत्र में साधक को प्रथम चार वर्ष विकृतियों का त्याग करने का निर्देश दिया गया है, दूसरें चार वर्षों में एकान्तर उपवास के पारणे आयम्बिल करने का, ग्यारहवें वर्ष के छ: महीनों तक उत्कृष्ट तप नहीं करने का, पश्चात् के छ: महीने विकृष्ट तप (तेला, चोला आदि तप) करने का तथा बारहवें वर्ष में कोटीसहित, अर्थात् निरन्तर आयम्बिल करके एक पक्ष या एक मास का अनशन करने का निर्देश दिया गया है, जबकि आचारदिनकर में चार वर्ष पर्यन्त विभिन्न प्रकार के तप करने का, द्वितीय चार वर्ष में विविध प्रकार के तप करते हुए विकृति पारणा करने का, दो वर्ष
"उत्तराध्ययनसूत्र, मधुकरमुनि, सूत्र सं.७३६/२५१, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण १६६२. "जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, जिनेन्द्रवर्णी, पृ.-३८८, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण १६७३ "उत्तराध्ययनसूत्र, मथुकरमुनि, सूत्र सं.-३६/२५२-२५५, आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, प्रथम संस्करण १९६२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org