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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 305 आदि ग्रन्थों में हमें आचारदिनकर की भाँति वर्षामास सम्बन्धी विधि-निषेधों की विस्तृत चर्चा नहीं मिलती है। इस प्रकार हम देखते है कि मुनि की ऋतुचर्या सम्बन्धी विधि-विधानों का ध्येय कषाय एवं इन्द्रियों का निग्रह करते हुए सुचारू रूप से संयमयात्रा का निर्वहन करना ही है। उपसंहार जिस प्रकार मुनि को संयम की सम्यक् परिपालना के लिए अहोरात्रि की चर्या का ज्ञान होना आवश्यक है उसी प्रकार ऋतुचर्या का भी ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है, क्योंकि उसके अभाव में उसकी संयम की परिपालना सम्यक् नहीं होगी। मुनि-जीवन में प्रवेश करने के बाद मुनियों की अनेक ऐसी क्रियाएँ हैं, जिनका ज्ञान होना आवश्यक है, जैसे- विहारचर्या श्रमणजीवन की एक अनिवार्य एवं महत्त्पूर्ण चर्या है, क्योंकि बिना किसी प्रयोजन के वे स्थायी रूप से किसी एक नियत स्थान पर निवास नहीं कर सकते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा गया है कि श्रमण को भारण्ड पक्षी की तरह ग्रामानुग्राम अनासक्त एवं अप्रमत्त भाव से निरन्तर विचरण६१३ करते हुए अपनी साधना में लीन रहना चाहिए, किन्तु जब तक मुनि को यह ज्ञान नहीं होगा कि मुनि को कब विहार करना चाहिए, कब विहार नहीं करना चाहिए, किन क्षेत्रों में विचरण करना चाहिए, किन क्षेत्रों में विचरण नहीं करना चाहिए, तब तक वह आगमानुसार विहारचर्या का पालन कैसे कर सकेगा? क्योंकि विहारचर्या के ज्ञानाभाव में यदि वह विपरीत विहारचर्या का अनुसरण करता है, तो उसका आचरण शास्त्रविरूद्ध कहलाता है तथा निशीथसूत्र के अनुसार १७ वह प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है। अतः आगमानुसार विहारचर्या का पालन करने हेतु उसका ज्ञान होना आवश्यक है। इसी प्रकार ऋतु सम्बन्धी आचारों का ज्ञान भी मुनि के लिए आवश्यक है। किस ऋतु में मुनि को आतापना लेनी चाहिए, किस ऋतु में मुनि को खुले बदन रहना चाहिए, किस ऋतु में मुनि को एक क्षेत्र में स्थिरता रखना चाहिए आदि महत्वपूर्ण विषयों का ज्ञान ऋतुचर्या के बिना होना अशक्य है। ऋतुचर्या का ज्ञान होने पर ही वह उन-उन ऋतुओं से सम्बन्धित चर्याओं का पालन करके राग-द्वेष के निमित्तों को दूर कर सकता है। ६५ उत्तराध्ययनसूत्र, मधुकरमुनि, सूत्र सं.-४/१०, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण १६६२. "निशीथसूत्र, मधुकरमुनि, सूत्र सं.-१६/२५-२६, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण १६६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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