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________________ 304 साध्वी मोक्षरला श्री आचारदिनकर में अस्वाध्याय के निवारण के लिए कल्पतर्पण (वस्त्र-प्रक्षालन) की विधि का भी उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में विधिमार्गप्रपा के अतिरिक्त कल्पतर्पण की विधि का उल्लेख हमें स्वतंत्र रूप से कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। विधिमार्गप्रपा में इस विधि को स्वतंत्र रूप से विवेचित किया गया है, यह बात भिन्न है कि वहाँ ग्रन्थकार ने उसे कल्पत्रेप विधि के नाम से उल्लेखित किया है, किन्तु उसका प्रयोजन भी अस्वाध्याय का निवारण करना ही है। दिगम्बर-परम्परा में मुनि निर्वस्त्र होते हैं, अतः उनके लिए कल्पतर्पणविधि का कोई महत्व नहीं रह जाता और यही कारण है कि दिगम्बर-परम्परा में हमें कल्पतर्पण की विधि का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। यद्यपि आर्यिका सवस्त्र होती है, किन्तु उनके लिए कल्पतर्पण (वस्त्र-प्रक्षालन) की क्या प्रक्रिया है, उनके ग्रन्थों में इसका उल्लेख नहीं होने के कारण उस सम्बन्ध में कुछ कह पाना संभव नहीं है। बौद्ध-परम्परा में भी वस्त्र-प्रक्षालन की विधि का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु उस सम्बन्ध में कोई विशेष विधि-विधान वर्णित नहीं आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इस प्रकरण में अनेक ऐसे विषयों की चर्चा की है, जैसे- विहार के योग्य मुनि के लक्षण क्या हैं?६१° एक मास तक एक स्थान पर स्थिर-वास करने हेतु मुनि को किन-किन की अनुज्ञा लेनी होती है? आदि। इन बातों का उल्लेख हमें श्वेताम्बर दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में यत्र-तत्र तो मिल जाता है, किन्तु इसका सुव्यवस्थित विवेचन तो आचारदिनकर में ही मिलता है। __ वर्धमानसूरि ने अन्य ऋतुओं की चर्चा की अपेक्षा वर्षाऋतु की चर्या का अपेक्षाकृत विस्तृत विवेचन किया है। आगमग्रन्थों, यथा-कल्पसूत्र १२ वगैरह में भी अन्य ऋतुओं की अपेक्षा वर्षाऋतु की चर्या का विस्तृत वर्णन मिलता है, क्योंकि मुनि को चार मास तक एक स्थान पर रहकर ही अपनी संयम की आराधना करनी होती थी। इन चार महीनों में भी मुनि संयम का सम्यक् परिपालन कर सके तथा गृहीत व्रतों का आचरण सम्यक् प्रकार से कर सके- इस प्रयोजन से इस प्रकरण में उस काल से सम्बन्धित आवश्यक बातों का विस्तृत विवेचन किया होगा-ऐसा हम मान सकते हैं। दिगम्बर-परम्परा के मूलाचार, अणगार धर्मामृत ६० विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरीकृत, प्रकरण-२५, पृ.-६४, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण २०००. आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-एकतीसवाँ, पृ.-१२६-१३०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १९२२. ६" आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-एकतीसवाँ, पृ.-१३१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. कल्पसूत्र, अनु.-विनयसागार, वाचना- नवीं, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण १६६२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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