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________________ 288 साध्वी मोक्षरत्ना श्री में महत्तरा को शिक्षा प्रदान करते समय उसके कार्यों से सम्बन्धित कुछ दिशा-निर्देश अवश्य मिलते हैं। आचारदिनकर में महत्तरा के कार्यों से सम्बन्धित निर्देश में हमें एक विशेषता देखने को मिली, वह यह है कि सामान्यतः महत्तरा का कार्य साध्वी- समुदाय को ही अनुशासित करने का होता है, किन्तु वर्धमानसूरि ने महत्तरापद पर विभूषित साध्वी को साधु एवं साध्वी - दोनों को ही अनुशासित करने का निर्देश किया है। विधिमार्गप्रपा में महत्तरा द्वारा मात्र साध्वियों को ही अनुशासित करने का निर्देश मिलता है ७५ और वर्तमान में भी यही परम्परा दृष्टिगत होती है, किन्तु वर्धमानसूरि ने महत्तरा के कार्यक्षेत्र को व्यापक करते हुए साध्वियों के साथ-साथ साधुओं को भी अनुशासित करने का उल्लेख किया है, यह अलग बात है कि व्यवहार में इसका प्रचलन नहीं है। यद्यपि गण या गच्छ में आचार्य या सुयोग्य साधु का अभाव होने पर महत्तरा इस दायित्व का निर्वाह करती होगी - ऐसा हम मान सकते हैं। आचारदिनकर में महत्तरा - पद प्रदान करने सम्बन्धी अन्य गच्छों की मान्यताओं का उल्लेख करते हुए वर्धमानसूरि ने स्वगच्छ की मान्यताओं का भी निरूपण किया है। उनके अनुसार अन्य सभी गच्छों में पूर्वदीक्षित, अर्थात् अधिक संयमपर्याय वाली, अथवा वृद्धा साध्वियों को महत्तरा - पद प्रदान किया जाता है, किन्तु ग्रन्थकार के स्वगच्छ में कम दीक्षा पर्याय और तरूणावस्था वाली साध्वी को महत्तरा - पद प्रदान किया जाता है। वर्तमान में तो प्रायः सभी गच्छों में पूर्वदीक्षित, अर्थात् अधिक संयमपर्याय वाली साध्वी को ही महत्तरा - पद प्रदान किया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं, कि विभिन्न ग्रन्थों में प्रज्ञप्त महत्तरापदस्थापना की विधियों में कहीं-कहीं कुछ असमानताएँ दृष्टिगोचर होती है । उपसंहार तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् इस संस्कार की उपादेयता एवं आवश्यकता के सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक है। जैन- परम्परा में महत्तरा - पद का महत्वपूर्ण स्थान है। मुनिसंघ में जो स्थान आचार्य का होता है, वही स्थान साध्वीसंघ में महत्तरा का होता है, क्योंकि साध्वीवर्ग में परम्परागत र-विचार के पालन करवाने तथा स्व- आश्रित साध्वी- समुदाय एवं श्रावक-श्राविकाओं को नैतिक एवं उच्च आदर्शमय जीवन की आंतरिक प्रेरणा देने में महत्तरा की सदा अहं भूमिका रही है। आचार-1 ५७५ विधिमार्गप्रपा, जिनप्रभसूरिकृत, प्रकरण- ३०, पृ. ७३, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण २०००. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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