SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 282 साध्वी मोक्षरत्ना श्री अर्थात् वह प्रवर्तिनी-पदस्थापन-विधि प्रवर्तिनी-पद के आलापक से, अर्थात् प्रवर्तिनी-पद के नामोच्चारणपूर्वक वाचनाचार्यपदस्थापन विधि के समान ही जाननी चाहिए और मंत्रदान भी वाचनाचार्यपदस्थापन-विधि के समान ही है। विशेष यह है कि लग्न-समय में स्कन्धकरणी दी जाती है। शेष सभी आसनादि विधान वाचनाचार्यपदस्थापना-विधि की तरह ही समझना चाहिए। दिगम्बर-परम्परा में आर्यिकाओं में इस पद की व्यवस्था नहीं होती है, वहाँ मात्र गणिनी (महत्तरा) पद की ही व्यवस्था हमें देखने को मिली, जिसकी चर्चा हम यथास्थान करेंगे। वैदिक-परम्परा में भी हमें इस प्रकार के पद और उसके विधि-विधान का विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता है। जैसा कि पूर्व में भी विदित है कि मुनिजीवन में वाचना का बहुत ही महत्व है, क्योंकि वाचना से न केवल प्रत्यक्षतः ज्ञान की अभिवृद्धि होती है, बल्कि परोक्षतः मोक्षसुख की भी प्राप्ति होती है। साधुओं की भाँति ही साध्वियों को भी अधिकाधिक वाचना का अवसर प्राप्त हो-इस उद्देश्य से साध्वी-समुदाय में योग्य साध्वी को प्रवर्तिनी-पद पर नियुक्त किया जाता है। यद्यपि वाचनाचार्य भी साध्वियों को वाचना देते हैं, किन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा उनकी भी कुछ मर्यादाएँ होती हैं- इस व्यवहार को ध्यान में रखते हुए ही वाचना प्रदान करने के लिए योग्य साध्वी को प्रवर्तिनी-पद पर नियुक्त किया जाता है, जिससे वह अधिक समय तक साध्वियों को वाचना प्रदान कर सके। यह संस्कार कब किया जाना चाहिए, अर्थात् प्रवर्तिनी-पद प्रदान करते समय साध्वी किन-किन गुणों से युक्त हो, अर्थात् प्रवर्तिनी पद के योग्य साध्वी में क्या-क्या लक्षण होने चाहिए-इसकी विस्तृत चर्चा इस ग्रन्थ में मिलती है। यथा'६८ "वह इन्द्रियों को जीतने वाली हो, विनीता हो, कृतयोगिनी हो, आगम को धारण करने वाली हो, मधुरभाषी हो, स्पष्टवक्ता हो, करूणामयी हो, धर्मोपदेश में सदा निरत रहने वाली हो, गुरु एवं गच्छ के प्रति स्नेहशील हो, शान्त हो, विशुद्धशील वाली हो ......... इत्यादि।" संस्कार का कर्ता वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार आचार्य अथवा उनकी अनुपस्थिति में महत्तरा द्वारा करवाया जाता है। आचार्य अपने गच्छ के सम्पूर्ण साधु-साध्वियों ५६आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय - अट्ठाईसवाँ, पृ.-१२०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy