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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन विवेचन करें। तत्पश्चात् गुरु देशना दे तथा साधुओं एवं क्षुल्लकों के आचार का विवेचन करे । क्षुल्लकाचार का विवेचन करते हुए मूल ग्रन्थ में दशवैकालिकसूत्र के क्षुल्लकाचार नामक अध्ययन को उद्धृत किया गया है। इस प्रव्रज्याविधि की विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा किए आचारदिनकर के द्वितीय विभाग के उन्नीसवें उदय के अनुवाद को देखा जा सकता है। अन्त में जिनकल्पियों की दीक्षाविधि के सम्बन्ध में कहा गया है कि जिनकल्पी मुण्डन के स्थान पर स्वयं संपूर्ण केशों का लोच करते है । वेश ग्रहण में मात्र तृण का एक वस्त्र धारण करते हैं तथा चमरी गाय की पूंछ का या मोरपंखों से निर्मित रजोहरण ( प्रतिलेखनार्थ ) ग्रहण करते है। शेष उपस्थापनायोग का उद्वहन आदि सब कार्य स्थविर मुनियों के सदृश ही करते है, किन्तु संघट्टदान, संघट्टप्रतिक्रमण गृहस्थ के घर में करते है तथा पाणिपात्र, अर्थात् स्वयं की अंजलि में ही भोजन करते है । तुलनात्मक विवेचन ४७४ आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इस संस्कार की विधि में आगम एवं अन्य मतों का सन्दर्भ देते हुए दीक्षा के अयोग्य व्यक्तियों का विवेचन किया है। आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं के अतिरिक्त भी मुनिदीक्षा के अयोग्य व्यक्ति की सूची श्वेताम्बर परम्परा के अनेक ग्रन्थों में मिलती है, जैसे- प्रवचनसारोद्धार आदि । वर्धमानसूरि के अनुसार वही व्यक्ति प्रव्रज्या का अधिकारी है, जिसने गृहस्थधर्म, ब्रह्मचर्य और क्षुल्लकत्व की सम्यक् प्रकार से आराधना की हो । हरिभद्रसूरि ने पंचवस्तु एवं पंचाशकप्रकरण में इसे कुछ अलग ढंग से प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार आर्यदेश में उद्भव, जाति- कुल में विशुद्ध लघुकर्मी, विमलबुद्धि, संसार की असारता को जानने वाला, संसार से विरक्त, प्रतनुकषाय, अल्पहास्य, सुकृतज्ञ, विनीत, राजादि का अविरोधी निर्दोष अंगवाला, श्रद्धालु, स्थिर मन वाला, समुपसम्पन्न आदि गुणों से युक्त व्यक्ति प्रव्रज्या के योग्य होता है। श्वेताम्बर - परम्परा के अन्य ग्रन्थों में भी इसका विस्तार से वर्णन ४७६ - ४७५ 233 ४७४ प्रवचनसारोद्धार, अनु. हेमप्रभाश्रीजी, द्वार- १०७ से ११०, पृ. ४३३ से ४४०, प्राकृत भारती अकादमी जयपुर, प्रथम संस्करण १६६६. ४७५ पंचवस्तु, अनु. आचार्य राजशेखरसूरिजी अध्याय- प्रथम, पृ. २३ से २४, अरिहंत आराधक ट्रस्ट, बॉम्बे, द्वितीय संस्करण ४७६ पंचाशकप्रकरण, अनु.- डॉ. दीनानाथ शर्मा, अध्याय- २, पृ. २२ से २३, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण १६६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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