SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन ___231 प्रवृत्तियों को कारण का कार्य में उपचार करके पापकारी कहा है। दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा में भी प्रव्रज्या का विधान इसी उद्देश्य से किया गया है। वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में, यह संस्कार किस समय किया जाना चाहिए, इस सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं दिया है, किन्तु जिनेश्वरों ने प्रव्रज्यायोग्य जीवों का द्रव्यलिंग धारण करने के लिए आयु-प्रमाण जघन्यतः आठ वर्ष एवं उत्कृ ष्टतः अत्यन्त वृद्ध न हो, तब तक का कहा है।७२ दिगम्बर-परम्परा में भी सामान्यतः इसी अवधारणा को स्वीकार किया गया है। वैदिक-परम्परा मे संन्यास ग्रहण करने हेतु अनेक मत मिलते है। जैसे७३- मनु के अनुसार वेदाध्ययन, सन्तानोत्पत्ति एवं यज्ञों के उपरांत ही मोक्ष की चिन्ता करनी चाहिए। बौधायन धर्मसूत्र एवं वैखानस धर्मसूत्र के अनुसार वह गृहस्थ जिसे सन्तान न हो, जिसकी पत्नी मर गई हो, या जिसके लड़के ठीक से धर्म-मार्ग में लग गए हों, या जो ७० वर्ष से अधिक का हो चुका है, वह संन्यासी हो सकता है। इस प्रकार तीनों ही परम्पराओं में प्रव्रज्याग्रहण अपने-अपने मतानुसार किया जाता है। संस्कार का कर्ता वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार निर्ग्रन्थमुनि (यतिगुरु) द्वारा किया जाता है। वर्तमान में भी श्वेताम्बर-परम्परा में यह संस्कार निर्ग्रन्थ मुनियों द्वारा ही किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में यह संस्कार मुनियों द्वारा और उनके अभाव में भट्टारकों द्वारा करवाया जाता है। वैदिक-परम्परा में यह संस्कार किसके द्वारा करवाया जाता है- इस सम्बन्ध में हमें कोई सूचना नहीं मिलती है। वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में इसकी निम्न विधि प्रस्तुत की हैप्रव्रज्या-विधि इस विधि में वर्धमानसूरि ने सर्वप्रथम दीक्षा के अयोग्य व्यक्तियों को दीक्षा प्रदान करने का निषेध करते हुए दीक्षा के अयोग्य व्यक्तियों की सूची दी है। वर्धमानसूरि के अनुसार अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियाँ, दस प्रकार के नपुंसक तथा विकलांग व्यक्ति प्रव्रज्या के अयोग्य होते है। मूल ग्रन्थ में इसकी विस्तार से चर्चा की गई है। तदनन्तर प्रव्रज्या के योग्य व्यक्ति में अन्य किन-किन लक्षणों का होना आवश्यक है, इसकी चर्चा की गई है। तत्पश्चात् यह ४७२ पंचवस्तु, अनु. आचार्य राजशेखर सूरि जी, द्वार-प्रथम, पृ.-३०, अरिहंत आराधक ट्रस्ट, बॉम्बे, द्वितीय ___ आवृत्ति. ४७३ धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग), पांडुरंग वामण काणे, अध्याय-२८, पृ.-४६१, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण १६८०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy