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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन तुलनात्मक विवेचन वर्धमानसूरि ने सर्वप्रथम इस संस्कार में क्षुल्लकत्व के योग्य साधक के लक्षण बताए है। जैसे ६३ -तीन वर्ष तक त्रिकरण की शुद्धिपूर्वक ब्रह्मव्रत का पालन करने वाला, वैराग्यभाव से परिपूर्ण, दृढ़तापूर्वक शील का पालन करने वाला तथा यतिदीक्षा ग्रहण करने को उत्सुक ब्रह्मचारी ही क्षुल्लक दीक्षा के योग्य होता है। दिगम्बर-परम्परा में अलग से क्षुल्लक दीक्षा के योग्य व्यक्ति के लक्षणों की चर्चा हमें देखने को नहीं मिली, किन्तु पूर्व-पूर्व की प्रतिमाओं के पालन करने से उनमें भी ये योग्यताएँ सामान्यतः प्रकट हो ही जाती हैं, यह स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है। वर्धमानसूरि ने जिस प्रकार क्षुल्लकत्व की अवधि विशेष का निर्देश किया है, उस प्रकार का निर्देश हमें दिगम्बर- परम्परा के ग्रन्थों में देखने को नहीं मिलता। उसमें सामान्यतः जीवनपर्यन्त के लिए इस प्रतिमा का ग्रहण किया जाता है । आचारदिनकर के अनुसार क्षुल्लकत्व की प्राप्ति के लिए साधक गुणों से युक्त गुरु के पास जाकर दीक्षा के उपयुक्त तिथि, वार, नक्षत्र, एवं लग्न के आने पर सिर मुण्डित करवाकर तथा स्नान करके शिखा एवं उपवीत को धारण करे और इसके लिए एक विशेष प्रकार की क्रियाविधि करे तथा उस क्रियाविधि में विशेष रूप से तीन वर्ष हेतु पाँच महाव्रतों एवं छठवें रात्रि भोजन त्याग का व्रत दो करण और तीन योग से ग्रहण करे। दिगम्बर- परम्परा के आदिपुराण में इसकी क्रियाविधि का हमें विस्तार से कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। सागार - धर्मामृत में इतना उल्लेख अवश्य मिलता है कि क्षुल्लक (उत्कृष्ट श्रावक ) गुह्य अंग को प्रच्छादन करने के लिए सफेद लंगोटी तथा उत्तरीयवस्त्र को धारण करे तथा दाढ़ी और मस्तक के बाल कैंची से या उस्तरे से कटवाए; लेकिन इसकी क्या विधि है ? इस सम्बन्ध में वहाँ कोई उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु हुम्बुज श्रमण भक्ति संग्रह में इसकी विधि दी गई है, जो इस प्रकार है 227 क्षुल्लक दीक्षा के योग्य नक्षत्रों में यथायोग्य अलंकारों से अंलकृत कर उसे चैत्यालय में लाएं। तदनन्तर अरिहंत देव को वंदनकर वह सभी के साथ क्षमापना करे तथा गुरु के आगे दीक्षा की याचना करे। दीक्षा की अनुज्ञा मिलने पर सौभाग्यवती स्त्री विधिपूर्वक स्वस्तिक कर उसके ऊपर श्वेत वस्त्र प्रच्छादित करे। उस पर मुमुक्षु को बैठाकर गुरु विधिपूर्वक लोच करे । लोच के पूर्वक गुरु ४६३ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-अठारहवाँ, पृ. ७२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. ** सागार धर्मामृत, अनु. आर्यिका सुपार्श्वमति जी, अध्याय- सातवाँ, पृ. ३६८, भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत् परिषद, तृतीय संस्करण १६६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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