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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
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के अन्तर्गत परिव्राजक एवं संन्यासियों के अन्तिमसंस्कार का भी उल्लेख है।४४३ संन्यासियों का अन्तिमसंस्कार अनेक रूपों में होता है, जैसे - १. अग्निसंस्कार २. भूमि में गाढ़ना ३. नदी के जल में प्रवाहित करना और ४. पशु-पक्षियों के भक्षण हेतु जंगल में छोड़ देना, आदि। ज्ञातव्य है कि जैन-परम्परा में भी प्राचीनकाल में मुनि की मृतदेह की अन्तिम क्रिया मुनियों द्वारा शव जंगल में रखकर ही की जाती थी, किन्तु वर्तमानकाल में श्रावकों द्वारा उनका दाह-संस्कार किया जाता है।
इस प्रकार तीनों ही परम्पराओं में अपनी-अपनी परम्पराओं की विधि के अनुरूप अन्त्यसंस्कार करने का उल्लेख मिलता है। उपसंहार -
इस तुलनात्मक विवेचन करने के उपरान्त जब हम इस संस्कार की आवश्यकता एवं उपादेयता का आंकलन करते हैं, तो हम पाते हैं कि मृत्यु के पूर्व प्राणी को साधना के माध्यम से देह के प्रति निर्ममत्व का भाव जाग्रत कराया जा सकता है, ताकि वह मृत्यु से भयभीत या दुःखी न होकर शान्तभाव से शरीर का त्याग कर सके। सामान्यतः मृत्यु के अन्तिम क्षणों में भी जीव मोह से ऊपर नहीं उठ पाता और अपने स्वजनों, मित्र, परिवार आदि का और अपनी धन सम्पत्ति का ही चिन्तन-मनन करता रहता है। अनासक्त भाव का विचार भी उसके मन में उत्पन्न नहीं होता। मोह से परिवृत्त जीव संसार का चिन्तन-मनन करते हुए ही परलोकगमन कर जाता है। जैन-परम्परा की यह मान्यता है कि यदि अन्तिम क्षणों में जीव के अध्यवसाय शुभ हों, तो वह अपने आगामी भव को सुधार सकता है। प्रायश्चित्त ऐसी अग्नि हैं जो पापकर्मों का नाश करने में समर्थ है। इस संस्कार के माध्यम से साधक को पूर्वकृत पापों की आलोचना एवं सुकृत की अनुमोदना करवाई जाती है तथा अनित्यादि बारह भावनाओं का चिंतन करवाया जाता है, जिससे साधक अन्तिम क्षणों में धर्मसाधना में जुट जाता है तथा परमात्मा के स्मरणपूर्वक ही देह का विसर्जन कर अपना आत्मकल्याण करता है।
मृत्यु के बाद व्यक्ति की सनाथता का आख्यापन करने के लिए अग्निसंस्कार की क्रिया की जाती है, जिसे वर्धमानसूरि ने भी स्वीकार किया है।
हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-दशम, प्र.-३४१, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, पांचवाँ संस्करण : १६६५
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