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________________ 209 वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन व्यक्ति को सामाजिक दायित्वों के साथ-साथ नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक-दायित्वों एवं कर्तव्यों का निर्वाह करने के लिए भी प्रेरित करता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस संस्कार की प्रासंगिकता अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आधुनिक काल में व्यक्ति की जो संग्रहवृत्ति एवं हिंसा की भावनाएँ विकसित हो रहीं हैं, उनका निराकरण एवं स्वस्थ्य समाज की स्थापना के साथ ही व्यक्ति के चहुंमुखी विकास के लिए यह संस्कार अत्यन्त अनिवार्य है, क्योंकि इसके माध्यम से व्यक्ति न मात्र स्व का कल्याण करता है, वरन् पर का कल्याण करने के लिए भी तत्पर बनता है। अन्त्य-संस्कार अन्त्यसंस्कार का स्वरूप - साधारणतया अन्त्यसंस्कार का तात्पर्य मरण के पश्चात् शव की अन्तिम क्रिया से है। वैदिक-परम्परा में इस शब्द को इसी रूप में स्वीकार किया गया है, परन्तु वर्धमानसूरि ने इस संस्कार को व्यापक अर्थ में लेते हुए मरण से पूर्व की साधना, अर्थात् जीवन की अन्तिम आराधना को भी इस संस्कार में अन्तर्निहित किया है। इस प्रकार वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में इस संस्कार के अन्तर्गत मृत्यु से पूर्व की साधना एवं मृत्यु के पश्चात् की क्रियाओं-दोनों को सम्मिलित किया है। दिगम्बर-परम्परा में मृत्यु से पूर्व की साधना के रूप में योगनिर्वाणप्राप्ति एवं योगनिर्वाणसाधना क्रिया का विस्तृत उल्लेख मिलता है। दिगम्बर-परम्परा में संस्कार सम्बन्धी विधि-विधानों में मृत्योपरान्त की क्रिया का विस्तृत उल्लेख नहीं है, किन्तु भगवती आराधना में इस क्रिया का “विजहणा" के रूप में विस्तृत उल्लेख है। फिर भी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर - दोनों परम्पराओं में इस संस्कार के अन्तर्गत समाधिमरण की साधना और मृतदेह की अन्तिम क्रिया - दोनों ही समाहित हैं। जब हम इस संस्कार के मूलभूत प्रयोजन के संदर्भ में विचार करते हैं, तो यह पाते हैं कि इस संस्कार के माध्यम से व्यक्ति स्वेच्छा से मृत्यु का वरण करता है। सामान्यतः यह देखा जाता है कि व्यक्ति यह जानते हुए भी कि "जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः", अर्थात जन्म लेने वालों की मृत्यु सुनिश्चित है, व्यक्ति मृत्यु से भयभीत रहता है और जीवन में अनासक्त दृष्टि का विकास नहीं कर पाता है। सामान्यतया शरीर के प्रति आसक्ति के कारण व्यक्ति मृत्यु से बचने का प्रयत्न करता है, या उससे दूर भागता है, लेकिन इस संस्कार के माध्यम से व्यक्ति को जीवन एवं शरीर की अनित्यता का भास करवाया जाता है तथा उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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