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________________ 208 साध्वी मोक्षरत्ना श्री तात्पर्य है - आरम्भिक व्रतों को छोड़ देना। आरण्यक का अध्ययन गाँव के बाहर वन में किया जाता था। मनु के अनुसार इन चारों व्रतों में प्रत्येक व्रत के आरम्भ में ब्रह्मचारी को नवीन, मृगचर्म, यज्ञोपवीत एवं मेखला धारण करनी पड़ती थी। गोभिल गृह्यसूत्र, जो सामवेद से सम्बन्धित है; गोदानिक, व्रातिक, आदित्य, औपनिषद्, ज्येष्ठसामिक नामक व्रतों का वर्णन करता है, जिनमें प्रत्येक एक वर्ष तक चलता है। गोदानव्रत का सम्बन्ध संभोग, गन्ध, नाच, गान, काजल, मधु, मांस आदि का परित्याग किया जाता है और गाँव में जूता नहीं पहना जाता है। गोभिल के अनुसार मेखलाधारण, भोजन की भिक्षा, दण्ड लेना, प्रतिदिन स्नान, समिधा देना, गुरु के चरणवन्दन करना, आदि क्रियाएँ सभी व्रतों में की जाती हैं। गोदानिकव्रत में सामवेद के पूर्वार्चिक का आरम्भ किया जाता था। बातिक से आरण्यक का आरम्भ होता था। इसी प्रकार आदित्य से शुक्रिय का, औपनिषद् से उपनिषद ब्राह्मण एवं ज्येष्ठ-सामिक से आज्य-दोह का आरम्भ किया जाता था। वर्धमानसूरि ने जिस प्रकार इस संस्कार के अन्त में संस्कार से सम्बन्धित सामग्री का उल्लेख किया है, उस प्रकार का उल्लेख भी श्वेताम्बर आगमों एवं दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में देखने को नहीं मिलता है। वैदिक-परम्परा में प्राचीन ग्रन्थों में तो नहीं, किन्तु परवर्ती ग्रन्थों में ऐसे उल्लेख मिल जाते हैं। उपसंहार - इस तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात् जब हम इस संस्कार की आवश्यकता एवं उपादेयता पर विचार करते हैं, तो यह पाते हैं कि वास्तव में व्यक्ति के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए व्रतारोपण-संस्कार अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। गर्भाधान से लेकर विवाहपर्यन्त तक के सभी संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति अपनी दैहिक आवश्यकताओं एवं सामाजिक दायित्व की पूर्ति करता है, लेकिन इन सामाजिक-दायित्वों के साथ ही व्यक्ति अपने नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक-दायित्वों से वंचित न हो, इसलिए व्रतारोपण-संस्कार किया जाता है। एक तरह से देखा जाए, तो इस संस्कार के माध्यम से व्यक्ति मात्र अपने धार्मिक-दायित्वों को ही पूरा नहीं करता, बल्कि सामाजिक-दायित्वों की भी पूर्ति करता है, जैसे - अहिंसाव्रत के माध्यम से व्यक्ति दूसरों की हिंसा न करने की प्रतिज्ञा लेकर “जीओ और जीने दो" के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है, जिससे समाज में अहिंसा का वातावरण स्थापित होता है। इसी प्रकार परिग्रह-परिमाण-व्रत एवं उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रत के माध्यम से व्यक्ति दूसरे के शोषण एवं उपभोक्तावादी संस्कृति के दुष्परिणामों से बच जाता है। इस प्रकार यह संस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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