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________________ 206 साध्वी मोक्षरत्ना श्री इस प्रकार है । ६. सामायिक, १० पौषधव्रत, ११. अतिथिसंविभागव्रत और १२. संलेखनाव्रत। दिगम्बर - परम्परा में देशावकाशिक और पौषधव्रत को एक में मिला लिया गया है तथा उस रिक्त संख्या की पूर्ति संलेखना को व्रत में समावेश करके की गई है। इस प्रकार दोनों परम्पराओं में आंशिक मतभेद दृष्टिगत होता है। मुख्यतः वर्धमानसूरि ने इन बारह ही व्रतों को व्रतारोपण - संस्कार में समाहित किया है, जबकि दिगम्बर - परम्परा में व्रतावतरण में हिंसादि पांच पापों के त्याग को ही अन्तर्निहित किया गया है। वर्धमानसूरि ने व्रतारोपण - संस्कार में प्रतिमा - उद्वहन की विधि का भी उल्लेख किया है। दिगम्बर - परम्परा में व्रतावतरण में इस विषय को विवेचित नहीं किया है, किन्तु दिगम्बर - परम्परा में भी श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है। यह बात भिन्न है कि उन ग्यारह प्रतिमाओं के सम्बन्ध में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर- परम्परा में आंशिक मतभेद हैं। श्वेताम्बर - परम्परा में श्रावक की निम्न ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है १. दर्शन २. व्रत ३. सामायिक ४. पौषध ५. प्रतिमा ६. ब्रह्मचर्य ७. सचित्तत्याग ८. आरंभत्याग ६. प्रेष्यत्याग १०. उद्दिष्टत्याग और ११. श्रमणभूत । दिगम्बर- परम्परा में श्रावक की निम्न ग्यारह प्रतिमा बताई गई हैं। १. दर्शन २ व्रत ३. सामायिक पौषध ५. सचित्तत्याग ६. दिवामैथुनत्यागप्रतिमा ७. ब्रह्मचर्यव्रतप्रतिमा आरंभत्याग प्रतिमा ६. परिग्रहत्यागप्रतिमा १०. अनुमतित्यागप्रतिमा और ११. उद्दिष्टत्यागप्रतिमा। इस प्रकार दोनों परम्पराओं में प्रतिमा सम्बन्धी धारणा में मतभेद दृष्टिगत होता है। नामों के मतभेद एवं क्रमभेद के साथ इनके विवेचन में भी कुछ मतभेद हैं, जैसे श्वेताम्बर - परम्परा में सामायिकप्रतिमा के अन्तर्गत प्रायः दोनों समय सामायिक करने का विधान है, वहीं दिगम्बर- परम्परा में इस प्रक्रिया के अन्तर्गत तीनों समय सामायिक करने का निर्देश दिया गया है। ४. ८. - Jain Education International - वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में व्रतारोपण - संस्कार की क्रियाविधि में शान्तिक एवं पौष्टिककर्म करने, नंदी के समक्ष सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय के आरोपण करने, बाईस अभक्ष्य आदि का त्याग करवाने एवं परिग्रह का परिमाण करने इत्यादि अनेक क्रियाओं का बहुत विस्तार से विवेचन किया है। साथ ही इस व्रतारोपणविधि में श्रावक को जिन बारह व्रतों का ग्रहण करवाया जाता है, उन बारह व्रतों का वर्णन, उसके नियम, अतिचार और जिन विकल्पों से व्रतग्रहण किए जाते हैं, उनका वर्णन वर्धमानसूरि ने बहुत विस्तार से किया है। द्वादश व्रतों के ग्रहण की अवधि के सम्बन्ध में उन्होंने मर्यादितकाल या यावज्जीवन उल्लेख किया है। इसी प्रकार श्रावक की ग्यारह प्रतिमा, उपधान विधि, मालारोपणविधि, श्रावक की दिनचर्या, परमात्मा की पूजाविधि, लघुस्नात्रविधि, बृहत् दोनों का For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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