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________________ साध्वी मोक्षरत्ना श्री के गुणों का भी उल्लेख किया गया है । ४०६ वर्धमानसूरि द्वारा वर्णित विकृतकुल आदि से सम्बन्धित उल्लेख वैदिक परम्परा में भी उसी प्रकार से ही वर्णित हैं, परन्तु जहाँ वैदिक-साहित्य में इसे बहुत विस्तार से विवेचित किया गया है, वहाँ वर्धमानसूरि ने इसे उतने विस्तार से विवेचित नहीं किया है। 194 ४०७ वर्धमानसूरि के अनुसार कन्या का विवाह गर्भ से आठवें वर्ष बाद कर देना चाहिए। ग्यारह वर्ष से ऊपर की आयु वाली कन्या को राका माना गया है तथा उसका विवाह वर के प्राप्त होने पर चंद्रबल में यथाशीघ्र कर देना चाहिए ।' पुरुष का आठ वर्ष से लेकर अस्सी वर्ष के बीच मे विवाह हो सकता हैं, परन्तु उसके बाद शुक्राणुरहित होने के कारण वह वर विवाह योग्य नहीं होता । दिगम्बर-परम्परा में यशस्तिलक के अनुसार विवाह हेतु कन्या की आयु १२ वर्ष एवं पुरुष की आयु १६ वर्ष मानी गई है। इसके अतिरिक्त इस सम्बन्ध में और कोई उल्लेख नहीं मिलते। वैदिक - परम्परा में पुरुष के लिए विवाह की कोई निश्चित अवधि नहीं मानी गई है। मात्र कन्या की विवाह से सम्बन्धित आयु को लेकर ही विद्वानों में मतभेद है । गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों के अनुसार लड़कियों के युवावस्था के बिल्कुल पास पहुँच जाने पर, या उसके प्रारम्भ होने पर, उनका विवाह कर देना चाहिए। इसके पश्चात् की आयु वाली कन्याओं के सम्बन्ध में अनेक भ्रान्त धारणाएँ थीं, जैसे - यदि कोई १२ वर्ष के उपरान्त अपनी कन्या का विवाह न करे, तो उसके पूर्वज प्रतिमास उस कन्या का ऋतु प्रवाह पीते हैं। ब्राह्मण उस कन्या से विवाह करे, तो वह वृषली का पति हो जाता है, आदि ऐसी अनेक भ्रान्त लोकमान्यताएँ थीं। ' ४०८ वर्धमानसूरि के अनुसार विवाह आठ प्रकार के होते हैं- ब्राह्म, प्राजापत्य, आर्ष, दैव, गान्धर्व, आसुर, राक्षस एवं पैशाच । इनमें से प्रथम चार धर्माधारित एवं माता-पिता के वचन के योग से होते हैं तथा अन्तिम चार पापविवाह एवं स्वेच्छा से होते हैं। दिगम्बर-परम्परा में विवाह के अनेक प्रकार बताए गए हैं४०६ - प्रशस्तविवाह - इसमें प्राजाप्रत्य एवं दैवविवाह को शामिल किया गया है। ४०६ धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग ), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ. २७३, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८० आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत ( प्रथम विभाग), उदय-चौदहवाँ, पृ. ३१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे सन् ४०७ १६२२ धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग ), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ. २७६, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८० देखे हरिवंश पुराण : एक सांस्कृतिक अध्ययन, राममूर्ति चौधरी, अध्याय- २, पृ. ५२ से ६४, सुलभ प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण : १६८६ του vot Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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