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________________ वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 193 दान दिया जाता है। इसके साथ ही वहाँ विप्रों एवं दूसरें याचकों को भी यथाशक्ति दान देने के लिए कहा गया है। अन्य देश, कुल एवं धर्म में विवाह के लग्न प्राप्त होने पर तथा वर के श्वसुरगृह में प्रविष्ट होने पर षट् आचार किस प्रकार से किए जाते हैं तथा वैश्याविवाह की क्या विधि है - इसका भी वहाँ उल्लेख किया गया है। स्थानाभाव के कारण हम उसका उल्लेख यहाँ नहीं कर रहे हैं, एतदर्थ विस्तृत जानकारी के लिए मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर (प्रथमखण्ड) के चौदहवें उदय को देखा जा सकता है। तुलनात्मक विवेचन - विवाह-संस्कार को सभी परम्पराओं ने स्वीकार किया है और अपनी-अपनी परम्पराओं के अनुरूप इसके विधि-विधान निश्चित किए गए हैं। श्वेताम्बर-परम्परा में इस संस्कार का उल्लेख अर्द्धमागधी आगम ज्ञाताधर्मकथा एवं विपाकसूत्र में मिलता है, ०५ किन्तु इस संस्कार सम्बन्धी विधि-विधानों का वहाँ कोई विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता है। वर्धमानसूरि द्वारा प्रतिपादित इस संस्कार के विधि-विधान बहुत कुछ वैदिक-परम्परा से मिलते-जुलते हैं, फिर भी कहीं-कहीं आंशिक असमानताएँ भी दृष्टिगत होती हैं, जिन्हें तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से जाना जा सकता है। वर्धमानसरि ने आचारदिनकर में सर्वप्रथम विवाह कहाँ करना चाहिए ? इसका विवेचन किया है, प्रथमतः जिनके कुल और शील समान हो, उनमें परस्पर विवाह करना चाहिए। श्वेताम्बर-परम्परा के आगमों में भी इस सम्बन्ध में समान कुल, शील, वय आदि की चर्चा मिलती है। जिनका कुल विकृत हो एवं शील भी समान न हो, उनमें परस्पर विवाह सम्बन्ध नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही वर्धमानसूरि ने विकृत कुल कौन-कौन से हैं तथा विकृत कन्या एवं विकृत वर किन-किन को माना गया है, इसका भी विवेचन किया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि दोनों का कुल अविकृत होने पर पाँच शुद्धियों को देखकर विवाह करना चाहिए। दिगम्बर-परम्परा में इस प्रकार के अविकृत कुलों की चर्चा हमें सामान्यतः देखने को नहीं मिलती है, फिर भी वर-कन्या के गुणों एवं योग्यताओं का तथा योग्य कुल में विवाह करने के उल्लेख अवश्य मिलते हैं। इसी प्रकार सागारधर्मामृत ग्रन्थ में कन्यादान किसे करें, सम्यक् कन्यादान की विधि क्या है एवं साधर्मिक को कन्या देने से क्या पुण्यलाभ होता है ? इसका उल्लेख करते हुए वर ४०५ (अ) ज्ञाताधर्मकथा सू.-१/१०४, (ब) विपाकसूत्र सू.-६/१/६, सं. मधुकरमुनि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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