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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 155
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार व्यक्ति की सफलता का कुछ अंश व्यक्ति के नाम पर भी आधारित होता है। इस संस्कार का सबसे महत्वपूर्ण पहलू तो यह है कि विश्व में अनेक मनुष्य हैं, अनेक प्रकार की वस्तुएँ हैं, जिनको नामकरण के बिना पहचान पाना सम्भव नहीं है, अतः व्यक्ति की पहचान के लिए नाम अत्यन्त अनिवार्य है, साथ ही सम्पूर्ण भाषा-व्यवहार भी नाम पर आधारित है। यह अनिवार्यता ही इस संस्कार की उपादेयता को स्पष्ट कर देती है।
अन्नप्राशन-संस्कार अन्नप्राशन-संस्कार का स्वरूप -
___ अन्नप्राशन-संस्कार में शिशु के जन्म के पश्चात् उसे प्रथम बार अन्न का आहार कराया जाता है। इस संस्कार में ऐसे प्रशस्त अन्न का आहार, जो शिशु के लिए योग्य हो तथा जो उसके विकास के लिए आवश्यक हो, विधि-विधानपूर्वक कराया जाता है। अन्नप्राशन-संस्कार न होने तक शिशु मात्र माता के स्तनपान या दुग्धाहार पर निर्भर रहता है। इस संस्कार के होने के पश्चात् ही शिशु को ठोस अन्नादि का आहार दिया जाता है।
इस संस्कार के मूलभूत प्रयोजन के सम्बन्ध में जब हम विचार करते हैं, तो पाते हैं कि जन्म के ५-६ महीने तक शिशु माँ के स्तनपान पर ही आश्रित रहता है, लेकिन जैसे-जैसे उसका शरीर विकसित होता है, वैसे-वैसे उसे ठोस आहार की भी अपेक्षा रहती है। दूसरी ओर, धीरे-धीरे माता के दूध की मात्रा भी घटती जाती है, अतः शिशु एवं माता - दोनों के हित की दृष्टि से यह आवश्यक समझा गया कि शिशु को माता के स्तनपान के साथ-साथ अन्य खाद्यपदार्थ भी दिए जाएं, ताकि कालान्तर में वह माता के दूध पर निर्भर न रहे। इसी
आवश्यकता का अनुभव करते हुए ही यह संस्कार किया जाता है- ऐसा हम मान सकते हैं। दूसरे शब्दों में, शिशु की शारीरिक-आवश्यकताओं की पूर्ति एवं माता के हित को ध्यान में रखकर यह संस्कार किया जाता है।
__आचारदिनकर के अनुसार यह संस्कार बालक के जन्म से छठवें मास में एवं बालिका के जन्म से पाँचवें मास में करवाया जाता है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में भी इस संस्कार को स्वीकार किया गया है। उनमें जन्म से सातवें या आठवें मास में यह संस्कार करने का निर्देश दिया गया है। वैदिक-परम्परा के
२८ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथमविभाग), उदय-नवाँ, पृ.-१६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन् १६२२.
आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनुवादक- डॉ. पन्नालाल जैन (भाग-२), पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२४८, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण २०००.
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