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________________ वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 141 इसको अन्तर्निहित करके मात्र दो पंक्तियों में ही इस विधि को सम्पूर्ण कर दिया गया है। उपसंहार - इस तुलनात्मक-विवेचन के पश्चात् जब हम इस संस्कार की उपादेयता को लेकर समीक्षात्मक-दृष्टि से विचार करते हैं, तो यह पाते हैं कि यह संस्कार अपने-आप में बहुत महत्वपूर्ण है। शिशु को इस संसार में जन्म लेने के पश्चात् सबसे पहले यदि कोई आहार दिया जाता है, तो वह है- माँ के दूध का आहार, जो वह स्तनपान द्वारा प्राप्त करता है। सामान्यतया, यह देखा जाता है कि नवजात शिशु को आहार शीघ्रता से नहीं पचता है और आहार का पाचन व्यवस्थित न होने के कारण अनेक रोग उत्पन्न होने का भय रहता है, इसलिए शिशु को यह आहार अमृतरूप बने, अर्थात् उसका पाचन व्यवस्थित रूप से हो- इस प्रयोजन को लेकर यह संस्कार किया जाता होगा- ऐसा हम मान सकते हैं। वैद्यकशास्त्रों में भी ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि जिस भोजन का पाचन सुचारू रूप से होता है, वही भोजन व्यक्ति के लिए अमृतरूप होता है। जिस प्रकार अमृत तुष्टि-पुष्टि और सौष्ठव आदि देने वाला होता है, उसी प्रकार अमृतमंत्र से मन्त्रित वह आहार भी उसे तुष्टि-पुष्टि और सौष्ठव, प्रदान करने वाला बनता है। हर माता की यही इच्छा होती है कि मेरा नवजात शिशु आरोग्य को प्राप्त करे और हृष्ट-पुष्ट हो। इसी कामना को लेकर यह संस्कार किया जाता रहा होगा- ऐसा हम मान सकते हैं। यदि हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखते हैं, तो भी इस संस्कार की आवश्यकता स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि शिशु के लिए माता का दूध अमृत के समान माना गया है। आधुनिक युग में चिकित्सक भी इस मत का समर्थन करते हैं कि शिशु को उसकी प्रारम्भिक-वय में माता का ही दूध पिलाना चाहिए। यद्यपि इस सन्दर्भ में यह सावधानी आवश्यक है कि माता किसी संक्रामक रोग से पीड़ित न हो। इस संस्कार को, जो जन्म के तीसरे दिन करने के लिए कहा गया है, उसका प्रयोजन यह है कि माता के स्तन में गर्भकाल का जो संचित दूध रहता है, वह बालक को पिलाने योग्य नहीं रहता है, इसलिए यह कहा गया है कि यह संस्कार जन्म के तीसरे दिन करना चाहिए। जहाँ अन्य परम्पराओं ने इस संस्कार को जातकर्म संस्कार के अन्तर्गत ही मानकर इसका अवमूल्यन किया है, वहीं वर्धमानसूरि ने इसे एक स्वतंत्र संस्कार के रूप में स्वीकार करके इसके महत्व को अभिव्यक्त किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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