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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन २२२ श्वेताम्बर - परम्परा के आचारदिनकर में इसे जन्मसंस्कार के नाम से वर्णित किया गया है, तो दिगम्बर जैन एवं वैदिक परम्परा में इसे क्रमशः प्रियोद्भव एवं जातकर्म २२३ के नाम से विवेचित किया गया है। यह संस्कार तीनों ही परम्पराओं में बालक के जन्म के पश्चात् ही किया जाता है। श्वेताम्बर - परम्परा में अर्द्धमागधी आगमग्रंथ ज्ञाताधर्मकथा, औपपातिक, राजप्रश्नीय एवं कल्पसूत्र में इस संस्कार का उल्लेख मिलता है, किन्तु इस संस्कार सम्बन्धी विधि-विधानों का उल्लेख इन ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं है। दिगम्बर - पुराणों में इस सम्पूर्ण क्रिया को जन्माभिषेक, जन्माभिषेकोत्सव, जन्माभिषेचन, जन्मोत्सव, आदि नामों से भी उल्लेखित किया गया है। एक सन्दर्भ में इसे पुत्रलाभोत्सव भी कहा गया है। २२४ २२५ आचारदिनकर में इस संस्कार के सम्बन्ध में किए जाने वाले विधि-विधानों में शिशु के जन्म से पूर्व क्या तैयारी रखना चाहिए- इसका भी विवेचन किया गया है। कहा गया है २२६ गर्भकाल के अपेक्षित मास, दिन, आदि की कालावधि पूर्ण होने पर गृहस्थ- गुरु ज्योतिषीसहित एकान्त एवं शोरगुलरहित तथा जहाँ स्त्रियों, बालकों, आदि का आवागमन न हो ऐसे सूतिकागृह के अत्यन्त समीपवर्ती कक्ष में घटिका - पात्र रखकर सावधानीपूर्वक पंचपरमेष्ठी के जाप में निरत रहते हुए प्रसव का काल जानने का प्रयत्न करे। इसी प्रकार वैदिक-परम्परा में भी श्वेताम्बर - परम्परा के अनुरूप ही एक मास पूर्व से प्रसव की तैयारियाँ करने का निर्देश है। उसमें भी सूतिकाकर्म हेतु घर में उपयुक्त कमरे का चुनाव करने से लेकर अनेक प्रकार के विधि-विधान करने का निर्देश है। दिगम्बर- परम्परा में इस सम्बन्ध में हमें कोई विशेष चर्चा प्राप्त नहीं होती है। इतना उल्लेख जरूर मिलता है कि प्रसव के समय गर्भिणी को सुन्दर, स्वच्छ एवं दीपकों से प्रकाशित प्रसूतिगृह में ले जाया जाता था। २२७ २२१ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत ( प्रथम विभाग), उदय-तृतीय, पृ. ६, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन् १६२२. २२२ आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनुवादक डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व- अड़तीसवाँ, पृ. २४६, भारतीय ज्ञानपीठ, २२३ -२२१ २२४ - सातवाँ संस्करण : २०००. देखें- धर्मशास्त्र का इतिहास, ( प्रथम भाग ) पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ. १६२, उत्तरप्रदेश, हिन्दी संस्थान लखनऊ, तृतीय संस्करण १६८०. (अ) ज्ञाताधर्मकथा सू. - १/६०-६१, (ब) औपपातिक सू. - १०५, ( स ) राजप्रश्नीय सू. - २८० (सं. - मधुकरमुनि) (द) कल्पसूत्र सू. - ६७-१०१ (सं. विनयसागर) । २२५ हरिवंशपुराण एक सांस्कृतिक अध्ययन, राममूर्ति चौधरी, अध्याय- २, पृ. ४१, सुलभ प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण: १६८६ २२६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत ( प्रथम विभाग ) उदय तृतीय, पृ. ६, निर्णयसागर मुद्रालय बॉम्बे, सन् १६२२ हरिवंशपुराण एक सांस्कृतिक अध्ययन, राममूर्ति चौधरी, अध्याय- २, पृ. ४१, सुलभ प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण : १६८६ | २२७ Jain Education International 127 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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