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________________ 124 साध्वी मोक्षरत्ना श्री पुत्र की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करने के लिए कहा गया है, जो इस बात का समर्थक है कि दिगम्बर-परम्परा में भी सन्तान “पुत्र" हो, इसके लिए प्रयत्न किए जाते थे, परन्तु दिगम्बर-ग्रन्थ आदिपुराण में इस प्रकार का कोई निर्देश नहीं मिलता है। श्वेताम्बर-परम्परा में वर्धमानसूरि ने इस संस्कार को पुत्र-प्राप्ति का हेतु न मानकर गर्भ की शरीर-रचना के पश्चात् प्रमोदरूप माता के स्तनों में दूध की उत्पत्ति के लिए माना है। वर्धमानसूरि ने अपना यह मंतव्य निश्चित रूप से जैन-धर्म के कर्मसिद्धांत को अनुलक्ष्य में रखकर ही दिया होगा- ऐसा हम मान सकते हैं। उन्होंने संतान पुत्ररूप ही हो- ऐसा न मानकर पुत्र-पुत्री में समभाव बताया है। वैदिक-परम्परा में पुत्रप्राप्ति के साथ-साथ पराक्रमी एवं बलवान बालक की प्राप्ति के लिए यह संस्कार करने का उल्लेख भी मिलता है, जो वस्तुतः प्राचीन समय में युद्ध हेतु पराक्रमी एवं बलवान् पुरुष की आवश्यकता को ध्यान में रखकर किया जाता रहा होगा- ऐसा हम मान सकते हैं, किन्तु वर्धमानसूरि ने इस संस्कार का तात्पर्य दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा से कुछ हटकर किया है, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। जन्म-संस्कार (जातकर्म-संस्कार) जन्म-संस्कार का स्वरूप - जन्म-संस्कार के नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि वे विधि-विधान, जो शिशु के जन्म के समय किए जाते हैं, जन्म-संस्कार कहलाते हैं। आदिम-मानव के लिए शिशु का जन्म एक अत्यन्त आश्चर्यजनक दृश्य था। इस विस्मयजनक घटना का श्रेय उसने किसी अतिमानवीय-शक्ति को प्रदान किया। इस अवसर पर उसे अनेक संकटों तथा विपदाओं की भी आशंका हुई, जिनके उपशमन के लिए अनेक प्रकार के विधि-विधान अस्तित्व में आए। प्रसूता स्त्री और नवजात शिशु की प्रसवजन्य अशौचकालीन स्थिति के लिए सहज सावधानी तथा सुरक्षा अपेक्षित थी, जिसके फलस्वरूप जातकर्म से सम्बद्ध अनेक विधि-विधान किए जाने लगे। इस संस्कार का मूलभूत प्रयोजन लौकिक एवं अलौकिक-शक्तियों के भय से प्रसूता एवं प्रसव को मुक्त करवाना था, जिससे शिशु का प्रसव भली-भाँति हो सके एवं प्रसूता का भी किसी प्रकार का कोई अनिष्ट न हो। इस जन्म-संस्कार को वैदिक एवं जैन- दोनों ही परम्पराओं में स्वीकार किया गया है। श्वेताम्बर-परम्परा के आचारदिनकर नामक ग्रन्थ में वर्धमानसूरि ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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