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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
सन्तति प्राप्त करने के भी निर्देश दिए गए हैं७५, लेकिन कालान्तर में पारिवारिक- पवित्रता सम्बन्धी विचार आने पर पति के प्रतिनिधि के द्वारा गर्भस्थापना की परम्परा उपेक्षित होने लगी और अन्त में निषिद्ध मान ली गईं। अतः कालान्तर में केवल पति को ही गर्भाधान-संस्कार कराने का अधिकारी माना
गया।
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गर्भाधान-संस्कार की विधि
वर्धमानसूरि के अनुसार गर्भधारण के पश्चात् पाँच मास पूर्ण होने पर गर्भाधान की क्रिया गृहस्थ- गुरु द्वारा करवाई जाना चाहिए। यह संस्कार मास, तिथि, दिन, आदि की शुद्धि देखे बिना भी निश्चित मास, आदि में करना चाहिए । फिर भी इस हेतु कौन-कौनसे नक्षत्र एवं वार शुभ कहे गए हैं तथा यह संस्कार किस प्रकार के वेश एवं गुणों से युक्त गृहस्थ- गुरु द्वारा करवाया जाना चाहिए, इसका भी इसमें विचार किया गया है।
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गर्भाधान-संस्कार के लिए सर्वप्रथम गृहस्थ- गुरु को गर्भवती स्त्री के पति की अनुज्ञा प्राप्त करना चाहिए। तदनन्तर गर्भवती स्त्री का पति पूर्ण स्नान कर शुद्ध वेश को धारण करे तथा बृहत्स्नात्र - विधि से परमात्मा की पूजा करे और उस स्नात्रजल को पवित्र पात्र में संचित करे । तत्पश्चात् शास्त्रानुसार परमात्मा की द्रव्य एवं भाव पूजा करे। पूजा के अन्त में गृहस्थ- गुरु के निर्देशानुसार सधवा स्त्रियाँ गर्भवती स्त्री को स्नात्रजल से सिंचित करें। तदनन्तर सभी जलाशयों के पानी को एकत्रित करके उसे शान्तिदेवी के मंत्र से सात बार अभिमंत्रित करे तथा उसमें सहस्रमूलचूर्ण को डाले। तत्पश्चात् गृहस्थ- गुरु शान्तिदेवी के मंत्र से या अन्य मंत्र से अभिमंत्रित उस जल से गर्भवती स्त्री को स्नान करवाने हेतु सधवा स्त्रियों को निर्देश दे। स्नान करवाने के बाद गभर्वती स्त्री को सुसज्जित कर उसका पति के साथ मंत्रपूर्वक थिबंधन करे तथा पति के वामपार्श्व में पद्मासन में बैठकर शुभपात्र में स्नात्रजल सहित तीर्थोदक को रखे एवं आर्यवेद (जैन) मंत्रपूर्वक कुशाग्र पर स्थित जल की बूंदों से गर्भिणी स्त्री को सिंचित करे । तदनन्तर पंच परमेष्ठी मंत्र का स्मरण करते हुए दंपत्ति को आसन से उठाकर जिन बिम्ब के समीप ले जाए। वहाँ शक्रस्तव से जिनवंदन करके दंपत्ति को शक्ति के अनुसार फल, वस्त्र, मुद्रा, मणि, आदि चढ़ाना चाहिए । विधि के अन्त में गर्भवती स्त्री स्वसंपत्ति में से विधिकारक - क- गुरु को दान-दक्षिणा दे तथा गुरु उसके प्रतिफल में आशीर्वाद दे । तत्पश्चात् मंत्रपूर्वक र्गंथि का मोचन कर दंपत्ति को उपाश्रय में ले जाए तथा वहाँ
१७५ हिन्दूसंस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय - पांचवाँ ( प्रथम परिच्छेद), पृ. ६७, चौखम्बा विद्याभवन, पांचवाँ संस्करण १६६५ ।
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