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________________ 108 साध्वी मोक्षरत्ना श्री गर्भाधान-संस्कार गर्भाधान-संस्कार का स्वरूप - गर्भाधान-संस्कार का तात्पर्य गर्भस्थापना करने सम्बन्धी विधि-विधानों से है। इसका शाब्दिक-अर्थ यही माना जाता है, लेकिन वर्धमानसूरि के अनुसार इसका अर्थ गर्भस्थापन सम्बन्धी विधि-विधान से न होकर स्थापित गर्भ के संरक्षण एवं संस्कारित करने सम्बन्धी विधि-विधान से है। इस प्रकार जहाँ दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा ने इसके शाब्दिक अर्थ का अनुसरण करते हुए इसका तात्पर्य गर्भस्थापन करने सम्बन्धी विधि-विधान से बताया है, वहीं वर्धमानसूरि ने अपने ग्रन्थ आचारदिनकर में इसे गर्भ के स्खलन से बचाने का या गर्भ के संरक्षण सम्बन्धी संस्कार माना है। वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार स्थापित (रहे हुए) गर्भ के संरक्षण हेतु एवं उसे संस्कारित करने हेतु किया जाता है, क्योंकि सामान्यतया पूर्वकाल में यह मान्यता थी कि गर्भिणी को अमंगलकारी शक्तियाँ ग्रस्त कर सकती हैं और जिनके कारण गर्भ का स्खलन हो सकता है, अतः उनके निराकरण के लिए यह संस्कार किया जाता होगा - ऐसा हम मान सकते हैं, साथ ही गर्भ को मंत्रोच्चार एवं विधि-विधान द्वारा संस्कारित करने के प्रयोजन से भी यह संस्कार किया जाता होगा-ऐसा भी हम मान सकते हैं, क्योंकि इतिहास में अभिमन्यु, आदि के ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि गर्भस्थ शिशु पर बाहरी वातावरण का प्रभाव पड़ता है, परन्तु दिगम्बर ७° एवं वैदिक-परम्परा में इस संस्कार को करने का प्रयोजन गर्भ की स्थापना करना था, अर्थात् उनमें सन्तान की प्राप्ति के लिए यह संस्कार किया जाता था। यह कर्म कोई काल्पनिक धार्मिक-कृत्य नहीं था, अपितु एक यथार्थ कर्म था। जाति एवं कुल की परम्परा को अक्षुण्ण रखने हेतु प्रजनन-कार्य को सोद्देश्य और सुसंस्कृत बनाने के निमित्त ही गर्भाधान किया जाता था। इस प्रकार तीनों ही परम्परा में यह संस्कार एक विशिष्ट प्रयोजन को लेकर किया जाता था। वर्तमानकाल में इस संस्कार के प्रति अभिरुचि कम होने लगी है। 28° आदिपुराण जिनसेनाचार्यकृत, अनु.-डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२४५, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण - २००० । ७१ धर्मशास्त्र का इतिहास, पांडुरंग वामन काणे, (भाग-प्रथम), अध्याय-६, पृ.-१८१, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ, तृतीय संस्करण १६८० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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