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चतुर्थ अध्याय : सन्धि
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दो वर्णों के निकट आने पर उनमें वर्ण-विकृति के नियमानुसार परिवर्तन ( लोप, आगम अथवा आदेश ) होकर मिलने को सन्धि कहते हैं अर्थात वर्णों के विना विकृति के मिलने मात्र को संयोग कहते हैं और वर्ण विकृतिसहित मिलने को सन्धि कहते हैं । प्राकृत में सन्धि की व्यवस्था वैकल्पिक है । जैसे - वासेसी वास इसी ( व्यासषि: ), दहीसरो दहि ईसरो ( दधीश्वर: ) । एक पद में प्रायः सन्धि नहीं होती है । जैसे - कइ (कवि), गअ ( गज ), रुइ ( रुचि ), काअव्वं ( कर्त्तव्यम् ), बिइओ बीओ (द्वितीय), राएसि ( राजर्षिः), निसाअरो ( निशाचर: ) । चूँकि प्राकृत के वैयाकरणों ने संस्कृत के शब्दों में विकार के नियमों का प्रतिपादन करके प्राकृत के शब्दों की निष्पत्ति बतलाई है, अतः संस्कृत के नियमों का यहाँ पूर्ण परिपालन नहीं हुआ है । जहाँ कहीं भी सन्धि के नियमों का पालन किया गया है, वहाँ वह प्रायः वैकल्पिक है ।
प्राकृत के सन्धि सम्बन्धी नियमों को समझने के लिए उसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है - (१) स्वर सन्धि, (२) अव्यय सन्धि और (३) व्यञ्जन सन्धि । प्राकृत में विसर्ग का अभाव होने से यहाँ विसर्ग सन्धि नहीं होती है । प्राकृत में अव्ययों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । अतः इस सन्धि को यहाँ स्वतन्त्र सन्धि के रूप में दिखलाया गया है ।
(क) स्वर (अच् ) सन्धि
१. दीर्घ सन्धि ( सवर्ण स्वर सन्धि ) - ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ के बाद यदि सवर्ण स्वर आता है तो उन दोनों के स्थान में सवर्ण दीर्घ स्वर हो जाता है । जैसे
१. पदयोः सन्धिर्वा ( संस्कृतोक्तः सन्धिः सर्वः प्राकृते पदयोर्व्यवस्थितविभाषया भवति । बहुलाधिकारात् क्वचिद् एकपदेऽपि ) । हे० ८.१.५.
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