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संयुक्त व्यञ्जन परिवर्तन ] भाग १ : व्याकरण
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I
[ अपवाद स्वरूप ण्ह ( स्नान = ण्हाण । स्नुषा = ण्डुसा । स्नायु = हाउ !, न्ह ( स्नपन = न्हवण ), म्ह (अस्मि = म्हि । स्मः म्हः ); ल्ह ( लशुन = ल्हसुण | वस्त = ल्हसिअ ), द्रहो ( हृदः ) तथा व्रंद ( वृन्द ) पाये जाते हैं । समासस्थल में भी द्वितीय पद का प्रारम्भिक वर्ण विकल्प से संयुक्त पाया जाता है । जैसे -- नदीग्रामः = न इग्गामो, नइगामो | देवस्तुतिः = देवत्थुई, देवथुई । ]
(२२) मध्यवर्ती संयुक्त व्यञ्जन -
(क) यदि समान बलवाले हों तो प्रायः पूर्ववर्ती वर्ण का लोप करके परवर्ती वर्ण का द्वित्व कर दिया जाता है । यदि आदि-वर्ण संयुक्त होगा तो वहाँ द्वित्व नहीं होगा । जैसे- - शब्दः = सद्दो । स्वरः = सरो । (ख) यदि असमान बल वाले वर्ण हों तो प्रायः कम बल वाले का लोप करके अन्य वर्ण को द्वित्व कर दिया जाता है । जैसे—– अन्वेषणम् = अण्णेसणं । समग्रम् = समग्गं ।
(ग) द्वित्व होने के बाद पूर्ववर्ती वर्ण यदि महाप्राण ( वर्ग का द्वितीय या चतुर्थ वर्ण ) हो तो उसे क्रमश: प्रथम एवं तृतीय वर्ण ( हकार-रहित वर्ण ) में ( अल्पप्राण में ) परिवर्तित कर दिया जाता है । अर्थात् यदि संयुक्त व्यञ्जन का एक वर्ण महाप्राण हो तो उसके द्वित्व होने के बाद पूर्ववर्ती महाप्राण वर्ण को अल्पप्राण में बदल देते हैं तथा द्वितीयवर्ण महाप्राण ही रहता है । जैसेसदभावः = सब्भावो । विघ्नः = विग्धो । अभ्यन्तर = अब्भंतर ।
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(घ) 'य् र् व् श् ष् स्' इन वर्णों का जब लोप हो और इनके पहले या बाद में 'श् ष् स्' वर्ण हों तो उस सकार आदि स्वर को (द्वित्वाभाव पक्ष में) दीर्घ कर दिया जाता है । जैसे - काश्यपः - कासवो, कस्सवो । दुर्भगः = दूभगो । शिष्यः = सीसो ।
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(ङ) ऊष्म वर्ण ( सु, श्, ष् ) के साथ अल्पप्राण वाले वर्ण का संयोग होने पर अल्पप्राण व्यञ्जन ऊष्म वर्ण के प्रभाव से महाप्राण में बदल जायेगा । पश्चात् ऊष्मवर्ण का लोप करके द्वित्वादि कार्य नियम २२ ( ग ) के समान होंगे । जैसे -- अक्षि-अक्खि । कष्ट कट्टु । हस्त - हत्थ । पश्चिम-पच्छिम |
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